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________________ भाषाटीकासमेतः। (७५). देह आदि अनात्मवस्तुके वासनासमूहसे आत्मवासना जब अन्तरहित होजावे तो नित्य आत्माकी निष्ठासे देह आदि तीनो वासनाके । नाश करनेसे फिर आत्मवासना स्पष्ट मालूम होती है ॥ २५६ ॥ यथा यथा प्रत्यगवस्थितं मनस्तथा तथा मुञ्चति बाह्यवासनाम् । निश्शेषमोक्षे सति वासनानामा त्मानुभूतिः प्रतिबन्धशून्या ॥ २७७॥ प्रत्यक्ष परब्रह्ममें मन जैसे जैसे स्थिर होता है तैसे तैसे देह आदि बाह्यवासनाका मन त्याग करता है जव मनसे तब वासना दूर होती हैं तो प्रतिबन्धकसे रहित निरन्तर आत्माका अनुभव होताहै।।२७७॥ स्वात्मन्येव सदा स्थित्वा-मनो नश्यति योगिनः । वासनानां क्षयश्चातः स्वाध्यासापनयं कुरु ॥२७८॥ चित्तवृत्तिको निरोधकर केवल आत्मवस्तुम स्थिर होनेसे मनका नाश होता है मनके नाश होनेपर बाह्यवासना क्षीण होतीहै जब बाह्यवासना दूर हुई तो आत्मामें जो जगत्का अध्यास होरहाहै उस अध्यासको त्याग करो ॥ २७८ ॥ तमो द्वाभ्यां रजः सत्त्वात्सत्त्वं शुद्धेन नश्यति । तस्मात्सत्त्वमवष्टभ्य स्वाध्यासापनयं कुरु ॥२७९॥ रजोगुण और सत्त्वगुण इन दोनोंसे तमोगुणका नाश होता है और सत्त्वगुणसे रजोगुणका नाश होता है और शुद्ध चैतन्यसे सत्त्वका नाश होता है इसलिये सत्त्वगुणको अवलम्बन करके आत्मामें जो जगत्का अध्यास याने भ्रम होरहा है उसको त्याग करो ॥ २७९ ॥ प्रारब्धं पुष्यति वपुरिति निश्चित्य निश्चलः। धैर्यमालम्ब्य यत्नेन स्वाध्यासापनयं कुरु॥२८॥ प्रारब्धही शरीरका पोषण करता है ऐसा निश्चय कर चंचलताको छोड यत्नसे धैर्यको अवलम्बन कर आत्मामें जो जगत्का अध्यास है उसको दूर करो ॥ २८०॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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