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(७४) विवेकचूडामणिः। संसारकारागृहमोक्षमिच्छोरयोमयं पादनिबंधशृङ्खलम् । वदन्ति तज्ज्ञाः पटुवासनात्रयं योऽस्माद्विमुक्तः समुपैति मुक्तिम् ॥२७३॥ संसाररूप कारागारसे मोक्ष होनेकी इच्छा करते हुए मनुष्योंको पैर बांधनेके निमित्त लोकवासना,शास्त्रवासना,देहवासना ये तीनों वासना लोहेका प्रबल शृंखला हैं इन तीनों वासनारूप शृंखलासे जो मनुष्य मुक्त होता है वही मोक्षभागी होता है ॥ २७३ ॥
जलादिसम्पर्कवशात्प्रभूतदुर्गन्धधूतागरुदिव्यवासना । संघर्षणेनैव विभाति सम्यग्विधूयमाने सति बाह्यगन्धे ॥ २७४ ॥ जैसे अगरु आदि दिव्य गन्ध युक्त कोई काष्ठको जल आदि अन्य वस्तुओंका अधिक संसर्ग होनेसे उस अन्य वस्तुका दुर्गंध चन्दन काष्ठमें मिल जाता है बाद उस बाह्य दुर्गंधको अच्छी तरह धोनेसे उस चन्दनको घसनेपर फिर सुन्दर गन्ध निकलता है।२७४॥
अन्तःश्रितानन्तदुरन्तवासनाचूलीविलिप्ता परमात्मवासना । प्रज्ञातिसंघर्षणतो विशुद्धा प्रतीयते चन्दनगन्धवत्स्फुटम् ॥ २७९ ॥
अन्तःकरणमें प्राप्त जो अनन्त दुर्वासनारूप धूली है इस दुर्वासनारूप धूलीसे आवृत जो परमात्माकी वासना है सो जब बुद्धिके अत्यन्त संघर्ष होनेसे विशेष शुद्ध होती है तो चन्दनके गन्धतुल्य : स्पष्ट प्रतीत होतीहै ॥ २७५ ॥
अनात्मवासनाजालैस्तिरोभूतात्मवासना। नित्यात्मनिष्ठया तेषां नाशो भाति स्वयं स्फुटम्२७६