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भाषाटीकासमेतः। (७३) ! : आत्मवस्तुके जाननेपरभी हम कर्ता हैं हम भोक्ता हैं ऐसी प्रबल अनादि दृढ वासनाका जब तक त्याग नहीं हुआ तबतक फिर संसार भोग करना पडता है क्यों कि ईश्वरका संसार प्राप्त होनेमें प्रबल वासनाही कारण है इसलिये प्रत्यक् दृष्टिसे आत्मामें निवास करनेवाले मनुष्योंको उचित है कि प्रयत्नसे वासनाको त्याग करें क्यों कि वासनाका क्षीण होना यही मोक्ष है ऐसा आचार्योका मत है॥२६८॥
अह ममेति यो भावो देहात्मादावनात्मनि ।। अध्यासोऽयं निरस्तव्यो विदुषा स्वात्मनिष्ठया२६९
देह और नेत्र आदि इन्द्रिय जितने अनात्म वस्तु हैं उनमें जो अहं मम ऐसी भावना हुई है उस भावनाको आत्मनिष्ठासे विद्वानको अवश्य निरास करना चाहिये ॥ २६९ ॥ ज्ञात्वा स्वं प्रत्यगात्मानं बुद्धितो वृत्तिसाक्षिणम् । सोहमित्येव सद्वत्त्या नात्मन्यात्ममति जहि॥२७०॥
बुद्धि और बुद्धिके वृत्तिका साक्षी प्रत्यक्ष आत्मा अपनेको जानकर वही ब्रह्म मैं हूँ ऐसी समीचीन वृत्तिसे देह आदि अनात्म वस्तुओंमें जो आत्मबुद्धि फैली है सो त्याग करो ॥ २७० ॥ लोकानुवर्त्तनं त्यक्त्वा त्यक्त्वा देहानुवर्तनम् । शास्त्रानुवर्त्तनं त्यक्त्वा स्वाध्यासापनयं कुरु ॥२७॥ लोकवासनाको और देहवासनाको और: शास्त्रवासनाको छोडकर आत्मामें जो संसारका अध्यास है सो त्याग करो ॥ २७१ ॥
लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनयापि च । देहवासनया ज्ञानं यथावत्रैव जायते ॥ २७२ ॥ लोकवासना, और शास्त्रवासना, देहवासना इन तीनों वासनाके रहेसे मनुष्योंको यथावत् ज्ञान नहीं होता है ॥ २७२ ॥