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(७२) विवेकचूडामणिः। उक्तमर्थमिममात्मनि स्वयं भावयेत्प्रथितयुक्तिभिर्धिया। संशयादिरहितं कराम्बुवत्तेन तत्त्वनिगमो भविष्यति ॥
पूर्वोक्त अर्थको अच्छी युक्तिपूर्वक बुद्धिसे अपनेमें आत्मवस्तुको विचारनेसे हस्तगत जल आदिके सदृश संशयरहित होनेसे आत्मवस्तुका साक्षात् बोध होता है ॥ २६५ ॥
संबोधमा परिशुद्धतत्वं विज्ञाय संघे नृपवच्च सैन्ये । तदाश्रयः स्वात्मनि सर्वदा स्थितो विलापय ब्रह्मणि विश्वजातम् ॥ २६६॥
जैसे सैन्यके मध्यमें सर्वोपरि विराजमान एक आत्मा होता है तैसे संसारसमूहमें परिशुद्ध सम्यक् बोधमात्र आत्मतत्त्वको जानकर और उसी आत्मतत्त्वका आश्रय होकर आत्मामें सदा स्थित होकर जायमान सम्पूर्ण विश्वको ब्रह्महीमें लीन करो ॥ २६६ ॥
त होकर बुद्धौ गुहायां सदसद्विलक्षणं ब्रह्मास्ति सत्यं परमद्वितीयम् । तदात्मना योऽत्र वसेद्गुहायां पुनने तस्याङ्गगुहाप्रवेशः ॥ २६७॥ बुद्धिरूप कन्दरामें सत् असत्से विलक्षण सत्य अद्वितीय जो परब्रह्म है उन्हीं परब्रह्मका रूप होकर जो मनुष्य बुद्धिरूप कंदरामें वास करेगा उस मनुष्यका फिर उस कन्दरामें प्रवेश अर्थात फिर जन्म न होगा ॥२६७॥
ज्ञाते वस्तुन्यपि बलवती वासना नादिरेषा कर्ता भोक्ताप्यहमिति दृढा यास्य संसारहेतुः। प्रत्यग्दृष्टयात्मनि निवसता सापनेया प्रयत्नान्मुक्ति प्राहुस्तदिह मुनयो वासना तानवं यत् २६८