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विवेकचूडामणिः ।
संलक्ष्य चिन्मात्रतया सदात्मनोरखण्डभावः पारचीयते बुधैः । एवं महावाक्यशतेन कथ्यते ब्रह्मात्मनोरैक्यमखण्डभावः ॥ २५१ ॥
जीवात्मा और परमात्मा इन दोनोंमेंसे विरुद्ध अंशको छोडकर दोनों चैतन्य अंशको विद्वान लोग एकत्व निश्चय करते हैं इसी तरहसे सैंकडों महावाक्य जीवात्मा परमात्माके एकत्वभावहीको स्पष्ट कहते हैं ।। २५१ ॥ अस्थूलमित्येतदसन्निरस्य सिद्धं स्वतो व्योमवदप्रतर्क्यम् । अतो मृषामात्रमिदं प्रतीतं जहीहि यत्स्वात्मतया गृहीतम् । ब्रह्माहमित्येव विशुद्धबुद्धयाविद्धि स्वमात्मानमखण्डबोधम् || २५२ || 'प्रत्यक अस्थूलोऽचक्षुरप्राणोऽमनाः इस श्रुति से अनित्यस्थूल पदार्थों के निरास करने से आकाश सदृश व्यापक तर्क रहित चैतन्य सिद्ध होता है इसलिये आत्मरूपसे गृहीत जो मिथ्या प्रतीतिमात्र देहादि वस्तुमें आत्मबुद्धि हो रही है उस बुद्धिको त्याग करो और मैं ब्रह्म हूँ ऐसे विशुद्ध बुद्धिसे अपनेको अखण्ड बोधरूप चैतन्य आत्मा समझो ॥ २५२ ॥
मृत्कार्य्यं सकलं घटादि सततं मृन्मात्रमेवाहितं तद्वत्सञ्जनितं सदात्मकमिदं सन्मात्रमेवाखिलम् । यस्मान्नास्ति सतः परं किमपि तत्सत्यं स आत्मा स्वयं तस्मात्तत्त्वमसि प्रशान्तममलं ब्रह्माद्वयं यत्परम् ॥ २५३ ॥
जैसे सम्पूर्ण घटादि मृत्तिकाका कार्य है और घटके नाश होने से सर्वथा मृत्तिकाही वर्त्तमान रहती है इसी तरह सत्से उत्पन्न यह जगत् सदात्मक है जिस सत्से अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं है वह सत्स्वरूप