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- भाषाटीकासमेतः। (६७:) ततस्तु तो लक्षणया सुलक्ष्यौ तयोरखण्डैकरसत्वसिद्धये । नालं जहत्या न तथाऽजहत्या किन्तूभयात्मिकयैव भाव्यम् ॥ २४ ॥
जीवात्मा परमात्माका अखण्ड एक रसत्व सिद्ध होनेके लिये महीवाक्यमें भाग त्यागलक्षणा करना इसी लक्षणासे परमात्मा लक्षित होता है इसीका नाम जहदजहत् लक्षणा भी है यहां केवल जहत लक्षणा अथवा अजहत् लक्षणा नहीं होती क्योंकि जहत् लक्षणा वहां होती है जैसे कोई कहता है कि गङ्गामें ग्राम है यह वाक्य सुनकर श्रोताने विचार किया कि गंगापदका प्रवाह अर्थ है.तो प्रवाहमें ग्राम होना असंभव है इस लिये गंगापदका जो मुख्य अर्थ है प्रवाह उसको त्यागकर तीरमें लक्षणा होती है. अजहत लक्षणाभी वही होती है जैसे कोई कहता है कि श्वेत दौडता है यह वाक्य सुनकर श्वेत गुणका दौडना असम्भव है इस लिये श्वेतगुण संयुक्त वाक्यमें लक्षणा होती है । तत्त्वमसि इस महावाक्यमें तो चैतन्यरूप अर्थ तत्पदार्थ और त्वंपदार्थ दोनोंमें वर्तमान रहता है और सर्वज्ञत्व आत्मज्ञत्व रूप -विरुद्ध भागका दोनोंमें त्याग होता है इस लिये जहदजहल्लक्षणा यहां जानना ॥ २४९ ॥ .. स देवदत्तोऽयमितीह वैकता विरुद्धधशिम:
पास्य कथ्यते । यथा यथा तत्त्वमसीति वाक्ये. विरुद्धधर्मानुभयत्र हित्वा ॥२५० ॥ जैसे वही यह देवदत्त है इस वाक्यमें तत्कालीन और एतत्कालीनरूपविरुद्ध धर्मको त्यागकर एकही देवदत्तका बोध होता है तैसे तत्त्व मसि इस वाक्यमें उक्तगीतसे परोक्षत्व अपराक्षत्वरूप विरुद्ध धर्मका दोनों पदार्थों में त्याग करनेसे चैतन्यांशमें एकता होती है ॥२५० ।।