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- (६६) . विवेकचूडामणिः ।
एतावुपाधी परजीवयोस्तयोः सम्यनिरासे न परो न जीवः । राज्यं नरेन्द्रस्य भटस्य खेटक
स्तयोरपोहे न भटोन राजा ॥ २४६॥ माया और महत्तत्त्व आदि जो परमात्माका उपाधि है और अन्नमय आदि पञ्चकोश जो जीवका उपाधि है इन दोनों उपाधिका सम्यक् निरास होनेसे न परमात्मा रहेगा न अलग जीवात्मा रहेगा जैसे राज्यकरनेसे राजा कहा जाता है और वही सिकारमें जानेसे वीर कहा जाता है इन दोनों उपाधिके छोड देनेसे न राजा कहा जायगा न तो वीर कहा जायगा एकही मनुष्यकी आकृति दीखेगी तैसे उपाधिके नष्ट होनेसे एकही शुद्ध चैतन्य शेष रहेगा ॥ २४६ ॥
अथात आदेश इति श्रुतिः स्वयं निषेधति ब्रह्मणि कल्पितं द्वयम् । श्रुतिप्रमाणानुगृहीतबोधात्तयोनिरासः करणीय एवम् ॥ २४७॥ __ परब्रह्ममें जो द्वैत भावना होरही है उस द्वैतभावनाको अर्थात् आदेशे नेति नेति इत्यादि श्रुति साक्षात् निषेध करती है इसलिये श्रुतियोंका प्रमाणसे बोधसम्पादन करके उक्तरीतिसे दैतका निरास ही करना चाहिये ॥ २४७ ॥ नेदं नेदं कल्पितत्वान्न सत्यं रज्जुईष्टा व्यालवस्वप्रवच्च । इत्थं दृश्यं साधु युक्त्या व्यपोह्य ज्ञेयः पश्चादेकभावस्तयोर्यः ॥ २४८॥ जैसे रज्जुमेंका देखा सर्प और स्वभावस्थाके देखे नाना पदार्थ सत्य नहीं हैं तैसे अज्ञान कल्पित यह जगत् सत्य नहीं है ऐसा समीचीन युक्तियोंसे दृश्य जगतका निषेध करके पश्चात् जीवात्मा परमात्माका जो कत्व भाव है वही शुद्ध चैतन्य परब्रह्म है ॥ २४८ ॥