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________________ (५८) विवेकचूडामणिः। यह आत्मा स्वयं अपनेको अनुभव करता है इस लिये स्वसाक्षिक कहा जाताहै इससे दूसरा साक्षात् स्वयं प्रत्यगात्मा नहीं है ॥ २१८ ॥ जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु स्फुटतरं योसौ समुज्जृम्भते प्रत्यग्रपतया सदाहमहमित्यन्तः स्फुरनकधा । नानाकारविकारभागिन इमान्पश्यन्त्रहं धीमुखानित्यान. न्दचिदात्मना स्फुरति तं विद्धि स्वमेतं हृदि॥२१९॥ जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति इनतीनों अवस्थाओंमें जो स्पष्ट प्रत्यक्षरूपसे उद्यत रहता है और अन्तःकरणमें अहं ऐसी प्रतीतिसे सदा भासता है और अनेक तरहका विकारयुक्त जो यह बुद्धि आदि है उसको देखता हुआ नित्यानन्द चैतन्यस्वरूपसे हृदयम जो फुरता है उसीको आत्मा जानो ॥ २१९ ॥ घटोदके बिम्बितमर्कविम्बमालोक्य मूढो रविमेव मन्यते । तथा चिदाभासमुपाधिसंस्थं भ्रान्त्याहमित्येव जडोभिमन्यते ॥ २२० ॥ जैसे घडेके जलमें सूर्यके प्रतिबिम्बको देखकर मूढजन उसी प्रतिबिम्बको सूर्य मानते हैं तैसे शरीरादि उपाधिमें स्थित जो चैतन्यका आभास अहंकार है उसी अहंकारको जड मनुष्य आत्मा समझते हैं वास्तविकमें वह अहंकार आदि आत्मा नहीं हैं ॥ २२० ॥ घटंजलं तद्गतमर्क बिम्बं विहाय सर्वं विनिरीक्ष्यतेऽर्कः । कूटस्थ एतत्रितयावभासकः स्वयंप्रकाशो विदुषा यथा तथा ॥ २२१ ॥ जैसे घट और जल व जलस्थ सूर्यका प्रतिबिम्ब इन सबोंको त्यागकरनेसे तीनोंके प्रकाशक स्वयं प्रकाशस्वरूप सूर्यको विद्वान् लोग पृथक् देखते हैं ॥ २२१॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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