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भाषाटीकासमेतः ।
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as facia भावसे शिष्यका पुनः प्रश्न है कि, हे गुरो ! अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय इन पांचों कोशोंको मिथ्या समझ के आत्मरूप से निषेध होनेके पश्चात् वस्तुमात्रका अभावही दीखता है दूसरा कुछ नहीं दीखता तो कौन ऐसी वस्तु है जिसको विद्वान् पुरुष आत्मस्वरूप समझे ॥ २१४ ॥
श्रीगुरुरुवाच । सत्यमुक्तं त्वया विद्वन्निपुणोऽसि विचारणे । अहमादिविकारास्ते तदभावोऽयमप्यनु ॥ २१५ ॥ शिष्य के प्रश्नकी प्रशंसा करते हुए गुरु बोले हे विद्वन् ! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया तुम आत्मविचार में निपुण हो मैं तुमसे कहता हूं चित्त देकर सुनो अहंकार आदि जितने विकार हैं उन विकाint मिथ्या समझके निषेध करनेके पश्चात् जो कुछ अवशेष रहजाता है वही परमात्मा है ॥ २१५ ॥
सर्वे येनानुभूयन्ते यः स्वयं नानुभूयते । तमात्मानं वेदितारं विद्धि बुद्धया सुसूक्ष्मया ॥ २१६॥
सम्पूर्ण अहंकार आदि विकारको जो अनुभव करता है जिसकी दूसरा कोई अनुभव नहीं करसकता उन्हीको सूक्ष्मबुद्धिसे सुन्दर सर्वज्ञ परमात्मा जानो ।। २१६ ॥
तत्साक्षिकं भवेत्तत्तद्यद्यद्येनानुभूयते । कस्याप्यननुभूतार्थे साक्षित्वं नोपयुज्यते ॥ २१७ ॥ जिस २ वस्तुका जो अनुभव करता है उस २ वस्तुका वह साक्षी होता है जिस वस्तुका जिसने नहीं अनुभव किया है उस वस्तुकी साक्षिता उसमें युक्त नहीं होती ॥ २१७ ॥
असौ स्वसाक्षिको भावो यतः स्वेनानुभूयते । अतः परं स्वयं साक्षात्प्रत्यगात्मा न चेतरः ॥२१८॥
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