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विवेकचूडामणिः ।
स्थूल सूक्ष्मरूपसे भोक्ता पुरुषके सम्पूर्ण विषयको तथा शरीरवर्णाश्रम जाति भेद गुण क्रिया कारण फल इन सबको मनही सदा उत्पन्न करता है ॥ १८० ॥
असंग चिद्रूपममुं विमोह्य देहेन्द्रियप्राणगुणैर्निबध्य । अहं ममेति भ्रमयत्यजत्रं मनः स्वकृत्येषु फलोंपभुक्तिषु ॥ १८१ ॥
असङ्ग चैतन्यस्वरूप ईश्वरको मोहित कर देह इन्द्रिय प्राण सत्त्वा - दिगुणोंसे बांधकर अपना कल्पित जो सुखदुःखआदि फल है उसके उपभोगमें अहं मम अर्थात् यह मेरा है यह मैं हूं ऐसे भ्रमको मन सर्वथा प्राप्त करदेताहै ॥ १८१ ॥
अध्यासदोषात् पुरुषस्य संसृतिरध्यासबन्धस्त्वमुनैव कल्पितः । रजस्तमोदोषवतो विवेकिनो जन्मादिदुःखस्य निदानमेतत् ॥ १८२ ॥
विषयोंसे पुरुषका संसर्गाध्यास होनसे ईश्वर में संसारसंभावना होती है और अध्यासरूप बन्धकी कल्पना मनही करता है, इसलिये रजस्तमरूपदोषयुक्त मनही विवेकी पुरुषके जन्म मरण आदि दुःखका आदिकारण है ॥ १८२ ॥
अतः प्राहुर्मनोऽविद्यां पण्डितास्तत्त्वदर्शिनः । येनैव भ्राम्यते विश्वं वायुनेवाभ्रमण्डलम् ॥ १८३ ॥ इसलिये यथार्थदर्शी पण्डित लोग मनहीको अविद्या कहते हैं जिस मनके वेग से जैसे वायुवेगसे मेघमण्डल भ्रमण करता है तैसें मनहीके वेग से सम्पूर्ण विश्व भ्रमको प्राप्त हो रहा है ॥ १८३ ॥ तन्मनःशोधनं काय्र्यं प्रयत्नेन मुमुक्षुणा । विशुद्धे सति चैतस्मिन्मुक्तिः करफलायते ॥ १८४ ॥