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विवेकचूडामणिः।
स्य न वस्तुता
लय होजाता है
कि, सबम
स्वप्नेऽथ शून्ये सृजति स्वशक्त्या भोकादिविश्वं मन एव सर्वम् । तथैव जाग्रत्यपि नो विशेषस्तत्सर्वमेतन्मनसो विजृम्भणम् ॥ १७३ ॥ जैसे स्वप्न अवस्थामें अथवा शून्य प्रदेशमें मनही भोक्तृत्व आदि सब विश्वकी सृष्टि करता है तैसे जाग्रत् अवस्थामें भी कुछ विशेष नहीं है यह सम्पूर्ण प्रपञ्च केवल मनहीका तरङ्गहै ॥ १७३ ॥ सुषुप्तिकाले मनसि प्रलीने नैवास्ति किंचित्सकलप्रसिद्ध । अतो मनःकल्पित एव पुंसः संसार एतस्य न वस्तुतोऽस्ति ॥ १७ ॥
सुषुप्तिकालमें जब मनका लय होजाता है उस कालमें किसी वस्तुका भान नहीं होता है इससे स्पष्ट मालूम होता है कि, सबमें प्रत्यक्ष जो यह ईश्वर है उसमें जो संसारकी संभावना होती है सो केवल मनहीकी कल्पना है अगर ऐसा न होता तो सुषुप्तिमें भी संसारका भान होता सच मुच ईश्वरका संसारसम्बन्ध नहीं होता॥१७४॥ वायुनाऽऽनीयते मेघः पुनस्तेनैव नीयते । मनसा कल्प्यते बन्धो मोक्षस्तेनैव कल्प्यते ॥ १७ ॥
जैसे वायु मेघको इकट्ठा करता है फिर वही वायु मेषको अन्यत्र उडाय देता है तैसे मनहीसे पुरुषकी बन्धकल्पना होती है और मनहीसे मोक्ष भी होता है ॥ १७५ ॥
देहादिसर्वविषये परिकल्प्य रागं बधाति तेन पुरुषं पशुवद्गुणेन । वैरस्यमत्र विषवत्सु विधाय पश्चादेनं विमोचयति तन्मन एव बन्धात्॥१७६॥
जैसे रस्सीसे पशु बांधा जाता है तैसे देह आदि सब विषयोंमें प्राति बढाकर विषयगुणसे मनही पुरुषको फँसा देता है पश्चात् वही