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विवेकचूडामणिः ।
छायाशरीरे प्रतिबिंबगात्रे यत्स्वप्रदेहे हृदि कल्पिताङ्गे । यथात्मबुद्धिस्तव नास्ति काचिज्जीवच्छरीरे च तथैव मास्तु ॥ १६६ ॥
अपनी छाया केशरीरमें तथा अपना प्रतिबिम्बमें तथा स्वप्नावस्था के शरीरमें और हृदय के कल्पित देहमें जैसे तुम्हारी कोई आत्मबुद्धि नहीं होती तैसे इस जीवित शरीरमें भी आत्मबुद्धि तुम्हें न होनी चाहिये ॥ १६६ ॥
देहात्मधीरेव नृणामसद्धियां जन्मादिदुःखप्रभवस्य बीजम् । यतस्ततस्त्वं च हितां यत्नात्त्यक्ते तु चित्ते न पुनर्भवाशा ॥ १६७ ॥
जन्म मरण आदि दुःख होनेके कारण मनुष्योंकी इस देहमें आत्मबुद्धि उत्पन्न होती है इस लिये तुम इस देहके आत्मबुद्धिको त्याग करो इस बुद्धिको चित्तसे त्यागने पर फिर जन्म होनेकी आशा न होगी ॥ १६७ ॥
कम्र्मेन्द्रियैः पञ्चभिरञ्चितो यः प्राणो भवेत् प्राणमयस्तु कोशः । येनात्मवानन्नमयोन्नपूर्णाप्रवर्त्तते सौ सकलक्रियासु ॥ १६८ ॥
प्राणवायु जो है सोई वचन आदि पंच कर्मेन्द्रियोंसे संयुक्त हाकेर प्राणमयकोश होता है जिससे यह देह आत्मवान् होता है और अन्नसे पूर्ण होनेसे अन्नमयकोश कहा जाता है और प्राणयुक्त होनेसे यावत् क्रियामें प्रवृत्त होता है ।। १६८ ।। नैवात्मापि प्राणमयो वायुविकारो गन्तागन्ता वायुवदन्तर्बहिरेषः । यस्मात्किञ्चित्वापि न वेत्तीमनिष्टं स्वं वान्यं वा किंचन नित्यं परतन्त्रः १६९