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भाषाटीकासमेतः ।
( ४१ )
आत्मानात्मविवेकः कर्त्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा । तेनैवानंदीभवति स्वं विज्ञाय सच्चिदानन्दम् ॥ १५४ ॥
संसारका बन्ध विमुक्त होनेके निमित्त विद्वान् को आत्म अनात्मवस्तुका विवेक करना चाहिये जिस विचारसे सच्चिदानन्दस्वरूप अपको समझके ज्ञानीलोग, परमानन्दको प्राप्त होते हैं ॥ १५४ ॥
मुआदिषीकामिव दृश्यवर्गात्प्रपञ्चमात्मानमसङ्गमक्रियम् । विविच्य तत्र प्रविलाप्य सव्वं तदात्मना तिष्ठति यः स भुक्तः ॥ १५५ ॥
जैसे प्रत्यक्ष दृश्यमुञ्जको हटानेसे उसके भीतरका कीलक अलग दीखता है तैसे प्रत्यक्ष इस सब प्रपञ्चको भी असङ्ग अक्रिय आत्मरूप ' समझके इसमें प्रपञ्चको लयकरके आत्मबुद्धिसे मनुष्य स्थित रहता है वही मुक्त कहता है ॥ १५५ ॥
देहोयमन्नभवनोऽन्नमस्तु कोशश्वान्नेन जीवति विनश्यति तद्विहीनः ॥
१५६ ॥ यह देह अन्नसे उत्पन्न है और अनमय इसका कोश है और अन्नहीसे इसका पालन होता है और अन्न न मिलने से विनाशको प्राप्त होता है ॥ १५६ ॥
त्वक्चर्ममांसरुधिरास्थिपुरीषराशि
र्नायं स्वयं भवितुमर्हति नित्यशुद्धः ॥ १५७ ॥
त्वचा चर्म मांसं रुधिर अस्थि पुरीष इन्ही सबका समूह है इसलिये
यह देह नित्यशुद्ध चैतन्यस्वरूप कभी नहीं होसकता है ॥ १५७ ॥