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भाषाटीकासमेतः। (३९) बीजं संसृतिभूमिजस्य तु तमो देहात्मधीरंकुरो रागः पल्लवमम्बु कर्म तु वपुः स्कन्धोऽसवः शाखिकाः । अग्राणीन्द्रियसंहतिश्च विषयाः पुष्पाणि दुःखं फलं नानाकर्मसमुद्भवं बहुविधं भोक्तात्र जीवः खगः ॥ १४७॥ इस संसाररूप वृक्षका तमोगुण बीज है, देहमें आत्मबुद्धि होना अंकुर है, देहादिमें प्रीति होना पल्लव है, काम्यकर्म जल है, शरीर इस वृक्षका स्कन्ध है, प्राणआदि पञ्चवायु शाखा है, इन्द्रिय सबवृक्षका अग्रभाग है, शब्द आदि विषय पुष्प हैं, नाना प्रकारके कर्मोंसे उत्पन्न नानाप्रकारका जो दुःख है सोई फल है इस फलका भोक्ता जीवात्मा पक्षी है ॥ १४७ ॥
अज्ञानमूलोयमनात्मबन्धो नैसर्गिकोऽनादिरनन्त ईरितः । जन्माप्ययव्याधिजरादिदुःखप्रवाहपातं जनयत्यमुष्य ॥ १४८॥ यह जो अनात्मवस्तुका बन्ध है सो अज्ञानसे उत्पन्न है स्वाभाविक है यही अनात्मबन्ध पुरुषके जन्म नाश व्याधि जरा आदि दुःख प्रवाहको उत्पन्न करताहै ॥ १४८ ॥
नास्त्रैर्न शस्त्रैरनिलेन वहिना छेत्तुं न शक्यो न च कर्मकोटिभिः। विवेकविज्ञानमहासिना विना धातुः प्रसादेन सितेन मञ्जुना ॥ ११९॥ इस प्रबल अज्ञानरूप बन्धको विवेक और विज्ञानरूप महातरवारके विना और मनोहर स्वच्छ ईश्वरके प्रसादविना कोई शस्त्र नहीं छेदन करसकता है न कोई अस्त्र न वायु उडा सकता है न तो अग्नि जला सकता है न किसी तरहका कर्म नाश करसकता है किन्तु केवल ज्ञानहीसे अज्ञानबन्ध नष्ट होता है ॥ १४९ ॥