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(३८) विवेकचूडामणिः। विषयविषपूरे जलनिधौ निमज्ज्योन्मज्ज्यायं भ्रमति कुमतिः कुत्सितगतिः ॥ १४३॥
जिस पुरुषके आत्मज्ञानको माहामोहरूपयाह जब ग्रास करलेताहै तब वह कुबुद्धिपुरुष तमोगुणसे अपनी बुद्धिको नानाप्रकारकी अवस्थाको प्राप्तकरताहुआ विषयरूप विषसे भराहुआ अपार संसारसमुद्रसे डूबता उतरताहुआ परम निन्दितगतिको प्राप्तहोताहै ॥ १४३ ॥ भानुप्रभासंजनिताभ्रपङ्क्तिर्भानुं तिरोधाय विजम्भते यथा । आत्मोदिताहंकृतिरात्मतत्त्वं तथा तिरोधाय विजृम्भते स्वयम् ॥ १४४ ॥
जैसे मूर्यकी प्रभासे उत्पन्न होकर मेघमंडल सूर्यको छिपाकर आत्मविस्तार दिखाताहै तैसे आत्मासे उत्पन्न हुआ अहंकार आत्मतत्त्वको छिपाकर अपने रूपको बढाताहै ॥ १४४ ॥ कवलितदिननाथे दुर्दिने सान्द्रमेधैर्व्यथयति हिमझंझावायुरुयो यथैतान् । अविरततमसात्मन्यावृते. सूढबुद्धिःक्षपयतिबहुदुःखैस्तीवविक्षेपशक्तिः१४५॥
जैसे सघनमेघसे सूर्य छिपजानेपर शीतल जलकणके सहित उत्कट प्रबल वायु मनुष्योंको व्यथा देताहै तैसेही तमोगुणसे आत्मज्ञानके नष्ट होनेपर मायाकी प्रबल विक्षेपशक्ति नानाप्रकारके दुःखसे पुरुषोंको क्लेश देतीहै ॥ १४५ ॥
एताभ्यामेव शक्तिभ्यां बन्धः पुंसः समागतः। याभ्यां विमोहितो देहं मत्त्वात्मानंभ्रमत्ययम्१४६ इसी दोनों मायाके आवरणशक्ति और विक्षेपं शक्तिसे पुरुषको बन्ध प्राप्त होताहै और इसी दोनों शक्तिसे मोहित होने पर इस देहमें आत्मबुद्धि उत्पन्न होतीहै ॥ १४६ ॥