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भाषाटीकासमेतः ।
ततोऽनर्थव्रातो निपतति समादातुरधिकस्ततो योऽसग्राहः स हि भवति बन्धः शृणु सखे १४० ॥ तमोगुणसे विशेष मोहको प्राप्त मनुष्योंका असत्य शरीरादिकमें सत्य आत्मवस्तुकी बुद्धि उत्पन्न होती है मोह होनेपर विवेकका अभाव होनेसे सर्पमं रज्जुबुद्धिकी स्फूर्ति होती है पश्चात् सर्पको रज्जुबुद्धिसे जो पुरुष ग्रहण करता है उसको अति अनर्थ प्राप्त होता है इस कारण असवस्तुका ग्रहण करना यही बन्धन का कारण होता है ॥ १४० ॥ अखण्ड नित्याद्वयबोधशक्त्या स्फुरन्तमात्मानमनन्तवैभवम् । समावृणोत्यावृतिशक्तिरेषा तमोमी राहुरवार्कबिम्बम् ॥ १४१ ॥
अखण्ड नित्य अद्वितीय बोधशक्तिसे प्रकाशमान अनन्तविभव आत्माको तमोगुणमयी यह आवरणशक्ति ढाँपलेती है जैसे प्रकाशमान सूर्यबिम्बको राहु ढाँपलेता है ॥ १४१ ॥
तिरोभूते स्वात्मन्यमलतरतेजोवति पुमाननात्मानं मोहादहमिति शरीरं कलयति । ततः कामक्रोधप्रभृतिभिरमुं बन्धन गुणैः परं विक्षेपाख्या रजस उरुशतिर्व्यथयति ॥ १४२ ॥
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आत्मा जब
मायाका प्रबल आवरणशक्तिसे परमप्रकाशस्वरूप छिप जाता है तब पुरुष मोहको प्राप्तहोकर आत्मासे भिन्न इस जड शरीर में अहंबुद्धि करता है इस शरीर में अहंबुद्धि होने के बाद रजोगुणकी विक्षेषनामक शक्ति, काम, क्रोध, आदि अपना वन्वनगुणसे उस पुरुषको परमदुःख देती है ॥ १४२ ॥ महामोहग्राहग्रसनगलितात्मावगमनो धियो नानावस्थां स्वयमभिनयस्तद्गुणतया । अपारे संसारे