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(३६) विवेकचूडामणिः।
परमात्मा प्रकृतिविकृतिभावसे भिन्न शुद्ध तत्त्वस्वभाव है अर्थात न तो आत्माका किसीसे प्रादुर्भाव होताहै न आत्मासे किसीकी उत्पत्ति होती है जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओंमें अहं ऐसी प्रतीति होनेसे साक्षात् बुद्धिका साक्षी होकर स्थूल सूक्ष्म सब जगतकों निर्विशेष प्रकाश करता हुआ स्वयं प्रकाशित होता है ।। १३७ ॥
नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमात्मन्ययमहमिति साक्षाद्विद्धि बुद्धिप्रसादात्। . जनिमरणतरंगापारसंसारसिंधुं प्रतर भव कृतार्थो ब्रह्मरूपेण संस्थः ॥ १३८ ॥ शिष्यके प्रति गुरुका उपदेश है कि तुम अपने मनको स्थिर करके बुद्धिके प्रसादसे यह हम साक्षात् आत्मा है ऐसा अपनेको जानो बाद जनन मरणरूप तरङ्गसे अपार संसारसमुद्रको पार होनेसे ब्रह्मस्वरूपमें प्राप्त होकर कृतार्थ होवो ॥ १३८ ।।
अत्रानात्मन्यहमिति मतिबंध एषोऽस्य पुंसः प्राप्तोऽज्ञानाजननमरणक्लेशसंपातहेतुः। येनैवायं वपुरिदमसत्सत्यमित्यात्मबुद्धया पुष्यत्युक्षत्यवति विषयैस्तन्तुभिः कोशकृद्धत् ॥ १३९॥
आत्मासे भिन्न इस स्थूलशरीरमें अपने अज्ञानसे अहंबुद्धि जिनकी होती है उन पुरुषोंको जनन मरण आदि क्लेशसमूहके कारण बन्धही सदा प्राप्त रहता है जिस बन्धके होनेसे वह मनुष्य अनित्य इस स्थूल शरीरको आत्मबुद्धिसे सत्य समझके विषयोंसे पुष्ट करते हैं सेवन करते हैं पालन करते हैं ॥ १३९ ॥
अतस्मिस्तबुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा विवेकाभावाद्वै स्फुरति भुजगे रज्जुधिषणा ।