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(३४) विवेकचूडामणिः। येन विश्वमिदं व्याप्तं यन्त्र व्याप्नोति किंचन। आभारूपमिदं सर्व यं भान्तमनुभात्यदः ॥ १३० ॥
जो सब विश्वमें व्याप्त है और उसमें कोई नहीं व्यापता जिसके ज्ञान होनेसे सब जगत् मिथ्या मालुम होताहै वही परमात्मा है॥१३०॥ यस्य सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः । विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव ॥ १३१॥ । जैसे किसीके कहनेसे किसी काममें कोई प्रवृत्त होताहै तैसे केवल जिसके नगीच होनेसे देहं इन्द्रिय मन बुद्धि ये सब अपने २ विषयमें प्रवृत्त होतेहैं ॥ १३१॥
अहंकारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः । वेद्यन्ते घटवयेन नित्यबोधस्वरूपिणा ॥ १३२ ॥
जिस नित्यचैतन्यरूपके सन्निधिसे अहंकार आदि देह पर्यन्त ये स्थूल सूक्ष्म शरीर और सुख आदि सब विषय ये सब घटके समान स्पष्ट मालुम होते हैं ॥ १३२ ॥
एषोऽन्तरात्मा. पुरुषः पुराणो निरन्तराखण्डसुखानुभूतिः । सदैकरूपः प्रतिबोधमानो येनेषिता वागसवश्वरन्ति ॥ १३३ ॥ यही अन्तरात्मा पुराणपुरुष निरंतर अखण्ड सुखका अनुभव करनेवाला, सदा एकरूप केवल चैतन्यस्वरूप परब्रह्म है जिसकी इच्छासे वाणी और प्राण ये सब अपने २ कर्ममें प्रवृत्त होतेहैं ॥ १३३ ॥
अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहायामव्याकृताकाश उरुप्रकाशः।आकाश उच्चै रविवत्प्रकाशते स्वतेजसा विश्वमिदं प्रकाशयन् ॥ १३४ ॥