________________
भाषाटीकासमेतः। माया मायाकार्य सर्वं महदादिदेहपर्यन्तम्।असदिदमनात्मकत्वं विद्धिमरुमरीचिकाकल्पम् ॥१२५॥
बुद्धिआदि देह पर्यन्त ये सब मायाके कार्य तथा माया आत्मासे भिन्न है और अनित्य है जैसे मरुस्थलकी मरीचिकामें जो जल मालूम होता है सो सर्वथा मिथ्याहै ॥ १२५ ॥
अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः।यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते ॥ १२६॥
अब मैं तुमसे परमात्माका स्वरूप कहूंगा जिसके जाननेसे मनुष्य संसारबन्धसे मुक्तहोकर कैवल्यमोक्षपदको पाताहै ॥ १२६ ॥
अस्ति कश्चित्स्वयं नित्यमहं प्रत्ययलम्बनः। अवस्थात्रयसाक्षी सन्पंचकोशविलक्षणः ॥ १२७॥ एक कोई अनिर्वचनीय वस्तु है सो नित्य-है अहं इस प्रतीतिको आलम्बन करताहै जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओंका साक्षी है अन्नमय प्राणमय मनोमय विज्ञानमय आनन्दमय पांचो कोशोस्ने विलक्षण है ॥ १२७ ॥
यो विजानाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु । बुद्धितवृत्तिसद्भावमभावमहमित्ययम् ॥ १२८॥ - जो जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति तीनों अवस्थाओंमें बुद्धि और बुद्धिकी वृत्तिका सद्भाव और अभाव इन सबको जानताहै ॥ १२८ ॥
यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न पश्यति कश्चन । यश्चेतयति बुद्धयादि न तु यं चेतयन्त्ययम् १२९॥
जो स्वयं सबको देखताहै और उसको कोई नहीं देखता जो बुद्धि आदि सब जडपदार्थोंको चैतन्य करताहै और उसको दूसरा कोई नहीं चेताता ॥ १२९॥