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भाषाटीकासमेतः। (२७) दोष नेत्रका धर्म है इसी तरह बधिर होना मूक होना ये सब श्रोत्रादि इन्द्रियका धर्म है सर्व साक्षी सर्वज्ञ आत्माका धर्म नहीं है ॥ १०३ ॥
"यस्मादसंगस्तत एव कर्मभिर्नलिप्यते किंचिदुपाधिना कृतैः” ॥ "जिससे कि आत्मा सङ्गरहित है अत एव उपाधिकृत कर्मोंसे कुछभी लिप्त नहीं होता" ॥
उच्छ्वासनिःश्वासविजृम्भणक्षुत्प्रस्पन्दनायुत्क्रमणादिकाः क्रियाः। प्राणादिकर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः प्राणस्य धर्मावशनापिपासे ॥ १०४॥ ऊपरको श्वास लेना नीचेको श्वास होना जभाई आना क्षुधा होना सीधा चलना टेढा चलना खाना पीना ये सब धर्म प्राण आदि वायुके हैं आत्माके नहीं हैं आत्मा इन सब धर्मोंसे रहित है ॥१०४॥
अन्तःकरणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्मणि। . अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेऽजसा ॥ १०५॥ मन चित्त आदि चारों अन्तःकरण संकल्प विकल्प आदि धर्म युक्त होकर चक्षुष आदि पाँचों ज्ञानेन्द्रियमें स्थित रहतेहैं ॥ १०५ ॥ विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यये। सुखं दुःखं च तद्धर्मः सदानन्दस्य नात्मनः१०६॥ इच्छानुकूल विषय प्राप्त होनेसे अन्तःकरण सुखी होता है न मिलनेसे दुःखी होता है इस लिये सुख दुःख ये दोनों अन्तःकरणके. धर्म हैं सदा आनन्द स्वरूप आत्माके धर्म नहीं हैं ॥ १०६ ॥
अहंकारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्यथ । सत्त्वादिगुणयोगेन चावस्थात्रयमश्नुते ॥ १०७॥ जो कर्ता भोक्ता और अभिमानी है वह अहंकार जानना और यही