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(२६) विवेकचूडामाणः।
स्वप्नो भवत्यस्य विभत्त्यवस्था स्वमात्रशेषेण विभाति यत्र । स्वप्ने तु बुद्धिः स्वयमेव जाग्रत्कालीननानाविधवासनाभिः ॥ १० ॥ स्थूल शरीर तथा सूक्ष्म शरीरके विभागके निमित्त स्वप्न अवस्थाहै इस स्वप्न अवस्थामें जाग्रत् अवस्थाकी जो नानाप्रकारकी वासना हैं उससे संयुक्त होकर बल बुद्धिका भान होताहै ॥ १० ॥
कादिभाव प्रतिपद्य राजते यत्र स्वयं भाति ह्ययं परात्मा । धीमानकोपाधिरशेषसाक्षी न लिप्यते तत्कृतकर्मलेशैः ॥१०१॥
स्वप्न अवस्थामें सर्वसाक्षी परमात्मा कर्तृत्व भोक्तृत्वभावको प्राप्त होकर बुद्धिमात्र उपाधि संयुक्त होनेपरभी बुद्ध्यादि कृतकर्म लेशसे लिप्त नहीं होते इस कारण असंग तथा निर्लेप कहे जाते हैं ॥ १०१॥ सर्वव्यापृतिकरणं लिङ्गमिदं स्याच्चिदात्मनः पुंसः । वास्यादिकमिव तक्ष्णस्तेनैवात्मा भवत्यसङ्गोऽयम् ॥ १०२॥ मनुष्यका जो सर्व वस्तु विषयक व्यापार है वही व्यापार चैतन्य आत्माका चिह्न है अर्थात् बिना चैतन्यके यह जड शरीरसे कोई व्यापार नहीं होता । जैसा बढईके व्यापार बिना टांगा वसुला स्वतन्त्र किसी काममें प्रवृत्त नहीं होते इसलिये आत्मा असङ्ग है ॥ १०२ ॥
अन्धत्वमन्दत्वपटुत्वधर्माः सौगुण्यवैगुण्यवशाद्धि चक्षुषः । बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव श्रोत्रादिधों न तु वेत्तुरात्मनः ॥ १०३॥ अन्धा होना, मन्द दीखना, अधिक दीखना ये सब सुन्दर गुण और