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(२२) विवेकचूडामणिः।
गच्छतः स्वस्य युक्त्या प्रभवति फलसिद्धिः सत्यमित्येव विद्धि ॥ ८३॥ जो दुर्बुद्धि मनुष्य कुटिल विषम मार्गसे अर्थात् विषयभोग करता हुआ, संसार समुद्रसे पार होना चाहता है उसको पदपदमें परम दुःख भोगना पडता है । जो मनुष्य हितकारी श्रेष्ठ गुरुके उपदेशसे तथा अपनी युक्तिसे या विषयरस त्यागकर पार होना चाहता है उसका निश्चय मोक्षरूप फल सिद्ध होता है ॥ ८३ ॥
मोक्षस्य काइक्षा यदि वैतवास्ति त्यजातिदराद्विषयान्विषं यथा । पीयूषवत्तोषदयाक्षमावप्रशान्तिदान्तीर्भज नित्यमादरात् ॥ ८४ ॥ यदि तुमको मोक्षकी इच्छा है तो विषतुल्य विषयोंको त्याग करों और अमृततुल्य जो जो संतोष, दया, क्षमा, कोमलता, शान्ति, इन्द्रियोंका निग्रह है इन सबोंका सर्वथा आदरसे सेवन करो ॥ ८४॥
अनुक्षणं यत्परिहृत्यं कृत्यमनायविद्याकृतबन्धमोक्षणम्। देहः परार्थोयममुष्य पोषणे यःसज्जते स स्वमनेन हन्ति ॥ ८५॥ अनादि अविद्या कृत बन्धसे मोक्ष होनेका उपाय सर्वथा त्यागकर जो मनुष्य अनित्य इस स्थूल देहके पालनमें तत्पर होता है वह मनुष्य साक्षात् आत्मघातक है ॥ ८५॥ शरीरपोषणार्थी सन्य आत्मानं दिदृक्षति । ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदी ततु स गच्छति ॥८६॥
जो मनुष्य अनित्य शरीरको पालन करता हुआ आत्मसाक्षात्कार चाहता है वह काष्ठ बुद्धिसे ग्राहको पकडकर नदी पार होनेकी इच्छा करता है ॥ ८६॥