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भाषाटीकासमेतः ।
(२१)
जो मनुष्य इन पांचों विषयोंके स्नेहमें सदा फँसा है वह क्यों न मारा
जायगा || ७८ ॥
दोषेण तीव्रो विषयः कृष्णसर्पविषादपि । विषं निहंति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम् ॥ ७९ ॥
कालसर्प विष भी अधिक शब्द स्पर्श आदि विषयोंका दोष अति तीव्र है क्योंकि विषखानेसे और सर्प काटने से मनुष्योंको दुःख देता है शब्द आदि विषय केवल दीखने सुननेसे भी दुःख देते हैं ॥ ७९ ॥ विषयाशामहापाशाद्यो विमुक्तः सुदुस्त्यजात् । स एव कल्पते मुक्त्यै नान्यः षट्शास्त्रवेद्यपि ॥ ८० ॥ विषयकी आशारूप दुस्त्यज महापाशसे जो मनुष्य वचे हैं वेही मोक्षके भागी होते हैं और आशापाशमें फँसा हुआ षट्शास्त्रीभी मोक्षका भागी नहीं होता ॥ ८० ॥ आपातवैराग्यवतो मुमुक्षून्भवाब्धिपारं प्रतियातुमुद्यतान् । आशाग्रहो मज्जयतेऽन्तराले निगृह्य कण्ठे विनिवर्त्त्य वेगात् ॥ ८१ ॥
अतिउत्कट वैराग्ययुक्त होकर संसार समुद्रको पार होने में उद्यत मोक्षकी इच्छा करनेवाले मनुष्योंको आशारूप ग्राह तीव्र वेगखें निवृत्त करके कण्ठग्रहण पूर्वक मध्य में डुबाता है ॥ ८१ ॥ विषयाख्यग्रहो येन सुविरक्तयसिना हतः । सगच्छति भवाम्भोधेः पारं प्रत्यूहवर्जितः ॥ ८२ ॥ विपयरूप ग्राहको जो मनुष्य वैराग्यरूप तरवारसे नाश करता है वह मनुष्य निर्विघ्न संसार समुद्रसे पार होता है || ८२ ॥
विषस विषयमार्गेर्गच्छतो नष्टबुद्धेः प्रतिपदमभियातो मृत्युरप्येष विद्धि । हितसुजन गुरूत्तया