________________
भाषाटीकासमेतः ।
पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा । आरोग्य सिद्धिर्दृष्टाऽस्य नान्यानुष्ठितकर्मणा ॥ ५५ ॥ जो रोगी रोगविमुक्त होनेके निमित्त पथ्य और औषध सेवन अपनेसे करता है वह रोगी अवश्य रोगसे विमुक्त होता है जो दूसरेको पथ्य औषध सेवन करायके अपना रोग दूर करना चाहे तो कभी नहीं दूर होता ॥ ५५ ॥
(१५)
वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा स्वेनैव वेद्यं न तु पण्डितेन ॥ चन्द्रस्वरूपं निजचक्षुषैव ज्ञातव्यमन्यैरवगम्यते किम् ॥ ५६ ॥
जैसे चन्द्रमाके शीतल स्वरूपका अनुभव अपने निर्मल नेत्रसे होता है दूसरे नेत्रसे अपने को नहीं दीखता तैसे आत्मस्वरूप अपने हृदयके प्रबल बोधरूप चक्षुसे जान परता है दूसरे पंडितका बोध होनेसे अपनेको आत्मबोध नहीं होता ॥ ५६ ॥ 'अविद्याकामकर्मादिपाशबन्धविमोचितुम् ।
कः शक्नुयाद्विनात्मानं कल्पकोटिशतैरपि ॥ ५७ ॥ अंज्ञान व काम तथा कर्म आदि पाश बन्धसे मुक्त होने में आत्मज्ञानके विना दूसरा कोई उपाय करोडहूं जन्ममें भी समर्थ नहीं होता ॥ ५७ ॥
न योगेन न साङ्ख्येन कर्मणा नो न विद्य या । ब्रह्मात्मैकत्वबोधेन मोक्षः सिद्ध्यति नान्यथा ॥ ५८ ॥
योगाभ्यास करनेसे तथा सांख्य मतके अवलम्बन करनेसे यज्ञ आदि कर्म करनेसे और नाना प्रकारकी विद्या अभ्यास करनेसे मोक्ष नहीं होता केवल जीव ब्रह्ममें एकत्व बुद्धि होनेसे मोक्ष होता है ॥ ५८ ॥