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________________ (१४) विवेकचूडामणिः। कथं विमोक्षः। कोऽसावनात्मा परमः स्व आत्मा तयोविवेकः कथमेतदुच्यताम् ॥५१॥ - शिष्यका प्रश्न है कि हे दयासिंधु ! यह देहरूप बन्धन क्या वस्तु है और कैसे यह हुआ कैसे यह स्थिर है और क्या आत्मवस्तु है क्या अनात्म वस्तु है और इन दोनोंका विवेक कैसे होता है यह दयाकार मुझसे कहिये ॥ ५१॥ __ श्रीगुरुरुवाच । धन्योसि कृतकृत्योसि पावितं ते कुलं त्वया । यदविद्याबन्धमुक्त्या ब्रह्मीभवितुमिच्छसि ॥५२॥ ऐसे विनीतभावसे युक्त शिष्यका वचन सुनके आचार्य बोले, तुम धन्य हो कृतकृत्यहो अर्थात् जो तुमको करना चाहिये सो करि चुके तुमने अपना कुल पवित्र किया, जो तुम अज्ञान बन्धसे मुक्त होकर साक्षात् ब्रह्म होनेकी इच्छा करते हो ॥ ५२ ।। ऋणमोचनकर्तारः पितुः सन्ति सुतादयः । बन्धे मोचनकत्ता तु स्वस्मादन्यो न कश्चन ॥५३॥ क्योंकि पिताका ऋण पुत्र मोचन करता है पर संसार बन्धसे मुक्त करनेवाला अपने बिना दूसरा नहीं होता अर्थात् अपनेही उद्योग करनेसे मोक्ष होता है ॥ ५३॥ मस्तकन्यस्तभारादेर्दुःखमन्यैर्निवार्यते ॥ क्षुधादिकृतदुःखं तु विना स्वेन न केनचित् ॥५४॥ जैसे माथेका बोझ दूसरा आदमी उतारले तो वह दुःख दूर हो जाता है तैसे चाहे कि क्षुधा होनेसे जो दुःख होता है सो दुःख दूसरेको भोजन करानेसे छूटे सो नहीं होता किन्तु अपनेही भोजनसे दूर होता है तैसे आत्मबन्धन अपनेही ज्ञान सम्पादनसे दूर होता है॥५४॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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