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(१२) विवेकचूडामणिः। तथा वदन्त शरणागतं स्वं संसारदावानलतापतप्तम् । निरीक्ष्य कारुण्यरसादृष्टया दद्यादभीति सहसा महात्मा ॥४३॥ संसार ताप दावानलसे संतप्त होकर विनीत भावसे बोलते हुए शरणागत शिष्यको देखकर गुरुको उचित है कि, करुणा रसयुक्त आर्द्रदृष्टि दानसे शिष्यको अभय देना ॥ ४३ ॥ विद्वान्स तस्मा उपसत्तिमीयुषे मुमुक्षवे साधु यथोक्तकारिणे प्रशान्तचित्ताय शमाऽन्विताय तत्त्वोपदेशं कृपयैव कुर्यात् ॥ ४४ ॥ मोक्षकी इच्छासे शरणागत और समीचीन रीतिसे आज्ञा पालन करनेवाला प्रशान्तचित्त जितेन्द्रिय शिष्यपर दयाकरि ब्रह्मविद्याको उपदेश करना विद्वान् ब्रह्मज्ञानी गुरुको उचित है ॥ ४४ ॥ माभैष्ट विद्वंस्तव नास्त्यपायः संसारसिंधोस्तरणेऽस्त्युपायः । येनैव याता यतयोऽस्य पारं तमेव मार्ग तव निर्दिशामि ॥ ४५ ॥
हे विद्वन् ! तुम संसारी दुःखसे भय मत करो तुम्हारा कभी नाश न होगा इस संसार समुद्रसे पार होनेका उपाय है जिस उपायसे योगी लोग इस दुःखसे पार हुए वही उपाय तुझे मैं बतलाता हूं ऐसी रीतिसे शिष्यको उपदेश करना गुरुको उचित है ॥ ४५ ॥ अस्त्युपायो महान्कश्चित्संसारभयनाशनः । तेन ती भवाम्भोधि परमानन्दमाप्स्यसि ॥४६॥
संसारी दुःख नाश होनेका एक परम उपाय है उसी उपायसे संसार समुद्रसे पार होकर परमानन्दको प्राप्त होगे ॥ ४६॥ वेदान्तार्थविचारेण जायते ज्ञानमुत्तमम् । तेनात्यन्तिकसंसारदुःखनाशो भवत्यनु ॥४७॥