________________
'भाषाटीकासमेतः। (११) शान्त स्वभाव महात्मा लोग बडे भयानक संसार समुद्रसे स्वयं उत्तीर्ण होकर बिना कारण दया भावसे संसार समुद्रमें डूबते हुये मनुष्यको उद्धार करनेके कारण संसारमें निवास करते हैं ॥ ३९ ॥
अयं स्वभावः स्वत एव यत् परःश्रमापनोदप्रवणं महात्मनाम् । सुधांशुरेष स्वयमकैककेशप्रभाभितप्तामवति क्षितिं किल ॥ ४० ॥ महात्मा लोगोंका यह स्वतःस्वभाव है जो दूसरेका दुःख दूर करनेमें तत्पर ऐसे होते हैं, जैसे सूर्यके प्रचण्ड किरणोंसे तपी हुई पृथ्वीको चन्द्रमा अपने सुधुसंयुक्त किरणोंसे निष्कारण सींचता है४० ब्रह्मानन्दरसानुभूतिकलितैः पूर्तेः सुशीतैर्युतैर्युष्मद्वाकलशोज्झितैः श्रुतिसुखैर्वाक्यामृतैः सेचय । संतप्तं भवतापदावदहनज्वालाभिरेनं प्रभो धन्यास्ते भवदीक्षणक्षणगतेः पात्रीकृताः स्वीकृताः ॥४१॥
हे करुणाकर ! मैं संस्सारके दुःखरूप दावाग्निकी ज्वालासे पीडित हूं, मुझको शीतल ब्रह्मानन्द रसके आस्वादनसे और मनोहर श्रुति गणोंसे पवित्र कलशरूपी मुखसे टपकता हुआ अपने वचनामृतसे सीचिये धन्य वह मनुष्य हैं जो आपकी कृपा कटाक्ष दृष्टि से स्वीकृत हुए और ब्रह्मविद्याके पात्र बनाये गये ॥ ४१ ॥
कथं तरेयं भवसिन्धुमेतं का वा गतिमॆकतमोऽस्त्युपायः । जाने न किंचित्कृपयाव मां प्रभो संसारदुःखक्षतिमातनुष्व ॥४२॥ हे दयासिंधु ! इस संसारसे मैं कैसे पार हूंगा ? मेरी कौन गति होगी ? संसार समुद्र तरनेका कौन उपाय है ? मैं कुछभी नहीं जान- . ताहूं संसारी दुःखसे मुझे बचाइये ॥ ४२ ॥