________________
(१०) विवेकचूडामणिः।
अहेतुकदयासिन्धुर्बन्धुरानमतां सताम् । तमाराध्य गुरुं भक्त्या प्रहप्रश्रयसेवनैः । प्रसन्नं तमनुप्राप्य पृच्छेज्ज्ञातव्यमात्मनः ॥३६॥
गुरुका लक्षण कहते हैं । वेद वेदान्तके यथार्थ ज्ञाता पापसे रहित निर्लोभी ब्रह्मज्ञानी आत्मपरायण शान्त निर्धूम अनिसदृश विना कारण दया के सिन्धु शरणागत सत् शिष्यको बन्धु समान ऐसे समीचीन गुरुके पास जाकर भक्तिसेवन प्रणाम आदि शुश्रूषा आराधन से प्रसन्न करनेके बाद आत्मतत्त्वज्ञानके निमित्त प्रश्न करै ॥३५॥३६॥
स्वामिन्नमस्ते नतलोकबन्धो कारुण्यसिन्धो पतितं भवाब्धौ । मामुद्धरात्मीयकटाक्षदृष्टया ऋज्व्याऽतिकारुण्यसुधाभिवृष्टया ॥३७॥ पूछनेका प्रकार कहते हैं कि, तत्त्वज्ञानके निमित्त गुरुके पास जाकर बडे विनीत भाव होकर गुरुसे बोलना, हे स्वामिन् ! हे लोकके, बंधु ! हे दयाके सिंधु !मैं संसारसमुद्र में डूबताहूँ मुझको अपनी कृपाकटाक्ष दृष्टि से और दया सुधा वृष्टिसे उद्धार कीजिये ॥ ३७॥
दुरिसंसारदवामितप्तं दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः । भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः शरण्यमन्यद्यदहं न जाने ॥ ३८॥ हे दयासिन्धु ! मैं दुरि संसाररूप दवाग्निसे जलता हूँ दुर्भाग्यरूप वायुसे काँपता हूं मुझको मृत्युभयसे बचाइये आपके विना दूसरा रक्षक कोई मुझे नहीं दीखता ॥ ३८ ॥
शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः । तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनानहेतुनान्यानपि तारयन्तः ॥ ३९॥