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________________ भाषाटीकासमेतः। (१५१) इस कारण मायाका कार्य जो ये दोनों वन्ध मोक्ष हैं सो कला क्रियासे रहित शान्त निरवद्य निरञ्जन अद्वितीय आकाशवत् निर्लेप जो परब्रह्म है उनमें कैसे रहेगा ॥ ५७४ ॥ न विरोधो न चोत्पत्तिर्न बन्धो न च साधकः । न मुसुक्षुन वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥२७॥ आत्मवस्तुमें न कोई विरोध है न उत्पत्ति है न बन्ध है न साधक है न भाक्षकी इच्छा है न मुक्तहै सबसे विलक्षण परमार्थ वस्तु आत्माहै ५७५ सकलनिगमचूडास्वान्तसिद्धान्तरूपं परमिदमतिगुह्यं दतिं मयाय। अपगतकलिदोपं कामनिमुक्तबुद्धिस्वमुतवदसकृत्त्वांभावयित्वा मुमुक्षुम्९७६ यह सब वेदान्तका सिद्धान्त उपदेश करि आचार्य महाराज शिष्यो बोले कि, कलिके दोषसे विनिर्मुक्त कामनासे रहित मोक्षकी इच्छा करनेवाला तुमको अपने पुत्र के समान जानकर सम्पूर्ण वेदका शिरोभाग जो अपने हृदयका परम सिद्धान्त अतिगोपनीय विषय रहा मोमब इस समय मैंने दिखाया ।। ५७६ ॥ इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं प्रश्रयेण कृतानतिः । स तेन समनुज्ञातो ययौ निर्मुक्तबन्धनः ॥ ५७७॥ ऐसे वचन गुरुके सुनकर शिष्यने वडी नम्रतासे प्रणाम किया और गुरुकी आज्ञा पाकर संसार वन्धले मुक्त होकर अपने स्थानको गया५७७ गुरुरेव सदानन्दसिन्धौ निर्मग्नमानसः । पावयन् वसुधां सर्वां विचचार निरन्तरः॥५७८ ॥ गुरुभी सच्चिदानन्द ब्रह्म में मनमानस होकर सम्पूर्ण पृथिवीको पवित्र करते हुये निरन्तर विचरने लगे ॥ ५७८ ॥ इत्याचार्य्यस्य शिष्यस्य संवादेनात्मलक्षणम् । निरूपितं मुमुक्षूणां सुखबोधोपपत्तये ॥ ५७९ ॥ __ श्रीशङ्कराचार्यस्वामी ग्रन्थके अन्तमें अधिकारी व विषय प्रयोजन कहते हैं कि मुमुक्षु पुरुषको थोडे परिश्रमसे आत्मबोध होनेके लिये
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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