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(१५०) विवेकचूडामणिः । मायाकृप्तौ बन्धमोक्षौ न स्तः स्वात्मनि वस्तुतः। यथा रज्जो निष्क्रियायां सर्पाभासविनिर्गमौ॥९७०॥
जैसे क्रियासे रहित रज्जुमें सर्पका भ्रम होताहै फिर वह भ्रम निवृत्तभी हो जाताहै परन्तु रज्जु जैसाका तैसाही रहताहै तैसे मायाका कार्य बंध मोक्षहै सो आत्मामें कभी नहीं होता आत्मा एकहीरूप सदा रहताहै५७०
आवृत्तेः सदसत्त्वाभ्यां वक्तव्य बन्धमोक्षणे। नावृत्तिब्रह्मणःकाचिदन्याभावादनावृतम् । यवस्ताद्वैतहानिः स्याद्वैतं नो सहते श्रुतिः॥९७१।। अज्ञानकी जो आवरणशक्ति है उसीके रहनेसे बन्ध होता है और आवरणशक्तिके अभाव होनेसे मोक्ष होता है उस आवरणशक्तिका ब्रह्ममें अभाव होनेसे ब्रह्मका बन्ध मोक्ष भी नहीं है यदि ब्रह्ममें भी आवरणशक्ति होगी अर्थात् यदि ब्रह्म भी आवरणशक्तिसे आवृत होगा तो ब्रह्ममें अद्वैत सिद्ध न होगा और ब्रह्ममें द्वैतभाव होना यह सर्वथा श्रुति विरुद्ध है ।। ५७१ ॥ बन्धं च मोक्षं च सदैव मूढा बुद्धेर्गुणं वस्तुनि कल्पयन्तिा हगावृति मेघकृतां यथा रखो यतोऽदयासंगचिदेतदक्षरम्
बुद्धिका गुण जो बन्ध मोक्ष है उस बन्ध मोक्षको मृढ मनुष्य अद्वयानन्द परब्रह्मवस्तुमें कल्पना करते हैं जैसे मेघसे अपनी दृष्टिको आवृत होजानेसे सूर्यको आवृत मानते हैं ब्रह्म तो भेदसे रहित असङ्ग चैतन्यरूप नाशसे रहित हे ऐसे ब्रह्मका बन्ध मोक्ष क्यों होगा ॥५७२।। अस्तीतिप्रत्ययो यश्च यश्च नास्तीति वस्तुनि। बुद्धरेवगुणावतो न तु नित्यस्य वस्तुनः ॥ ५७३ ॥
आत्मवस्तुमें जो अस्ति प्रतीतिहै और नास्ति ऐसी जो प्रतीतिहै ये दोनों प्रतीति बुद्धिका गुणहै नित्य वस्तु जो आत्माहै उसका गुण नहीं है क्योंकि आत्मा अस्ति नास्ति इन दोनों प्रतीतियोंसे विलक्षणहै ५७३
अतस्तो मायया कृप्तौ बन्धमोक्षौ न वात्मनि । निष्कले निष्क्रिये शान्ते निरवये निरञ्जने। अद्वितीये परे तच्छ व्योमवत्कल्पना कुतः ॥५७४॥