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भाषाटीकासमेतः। (१४७ ) लक्ष्यालक्ष्यगति त्यक्त्वा यस्तिष्टेत्केवलात्मना। शिव एव स्वयं साक्षादयं ब्रह्मविदुत्तमः ॥ ५५४ ॥
लक्ष्य अलक्ष्य वस्तुओंकी गतिको त्यागकर केवल एक आत्मस्वरूपसे जो ज्ञानी सदा स्थिर होते हैं वह साक्षात् शिवस्वरूप हैं ब्रह्मज्ञानियोंमें उत्तम हैं ॥ ५५४ ॥ जीवन्नेव सदा मुक्तः कृतार्थो ब्रह्मवित्तमः।। उपाधिनाशाद्ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति निर्द्वयम् ॥५५५॥
जिसकी चित्तसे उपाधि नष्ट हुई वही उत्तम ब्रह्मज्ञानी कृतकृत्य हैं और सदा जीवन्मुक्त होकर निर्दय ब्रह्मरूपको प्राप्त होते हैं॥५५॥
शैलुषो वेषसद्भावाभावयोश्च यथा पुमान् । तथैव ब्रह्मविच्छ्रेष्ठः सदा ब्रह्मैव नापरः॥ ५५६ ॥
जसे नट नानाप्रकारका स्वरूप रचना करनेसे और नहींभी करनेसे पुरुषरूप उसका यथार्थ सब अवस्थामें रहता है तैसे ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ जो है सो किसी अवस्थामें वर्तमान रहै परन्तु वह ब्रह्मरूपही है५५६ यत्र क्वापि विशीर्ण सत्पर्णमिव तरोर्वपुः पततात् । ब्रह्मीभूतस्य यतेः प्रागेव तच्चिदग्निना दग्धम् ॥९९७॥
जैसे वृक्षसे समीचीनपत्र सूखने पर जहां तहां गिरपरताहै तैसे ब्रह्मस्वरूपको प्राप्त यतिका शरीर पूर्वहीसे चैतन्यरूप अमिसे दग्ध रहताहै इस लिये चाहे कहीं गिरके शीर्ण होजावे इसमें ज्ञानीकी कोई क्षति नहीं है ५५७
सदात्मनि ब्रह्मणि तिष्ठतो मुनेः पूर्णाऽद्वयानन्दमयात्मना सदानि देशकालााचितप्रतीक्षा त्वङ्मांसविपिण्डविसर्जनाय ॥ ५५८ ॥ पूर्ण अद्वयानन्दमय होकर सच्चिदानन्दात्मकपरब्रह्ममें सदा वर्तमान जो मुनि हैं उनका जो त्वचा मांसं विष्ठा आदिसे पूर्ण यह देह पिण्डहै इसको त्याग करनेके लिये पवित्र देशकाल आदिकी प्रतीक्षा नहीं है क्योंकि वे तो स्वयं सदा मुक्त हैं ॥ ५५८॥