________________
(१४६) विवेकचूडामणिः। शरीरका आभास दीखनेसे मूढजन देहसे बद्ध दीखते हैं।५४८॥५४९॥
अहिनिलयनीवायं मुक्त्वा देहं तु तिष्ठति । इतस्ततश्चाल्यमानो यत्किञ्चित्प्राणवायुना॥५५०॥ जैसे सर्प अपने चर्ममय देहको छोडकर प्राणवायुसे इतस्ततः चंचलताको पाकर अन्यत्र स्थित होताहै तैसे ज्ञानीभी इस देहका स्नेह छोडकर इतस्ततः वर्त्तमान होते हैं ॥ ५५० ॥
स्रोतसा नीयते दारु यथा निम्रोन्नतस्थलम् । दैवेन नीयते देहो यथा कालोपमुक्तिषु ॥ ५५ ॥ जैसे जलका प्रवाहसे काष्ठ नीचे ऊँचे जमीन पर प्राप्त होता है तैसे प्रारब्ध कर्मसे यह देहभी कालका उपभोगमें प्राप्त होता है ॥ ५५१॥ प्रारब्धकर्मपरिकल्पितवासनाभिः संसारिवञ्चरति भुक्तिषु मुक्तदेहः । सिद्धः स्वयं वसति साक्षिवत्र तूष्णीं चक्रस्य मूलमिव कल्पविकल्पशून्यः॥५५२॥
ब्रह्मज्ञानी पुरुषका जो ममतासे रहित यह देह है सो देह प्रारब्ध कर्मसे कल्पित जो नानाप्रकार की वासना है उसी वासना प्रवाहसे भोग्य वस्तुओंमें संसारी मनुष्यों के नाई प्राप्त है और ज्ञानी पुरुष साक्षीके समान इस विषयमें अपने मौन होकर इस देहका तारतम्यको देखते हैं जैसे रथके चक्रमें जो मूल है जिसको धूरा कहते हैं वह मूल क्रियाशून्य होकर चक्रके वेगको साक्षीरूपसे दीरवताहै आप कोई यत्न नहीं करता है ॥ ५५२ ॥ नैवेन्द्रियाणि विषयेषु नियुक्त एष नैवापयुक्त उपदर्शनलक्षणस्थः । नैव क्रियाफलमपीपदवेक्षते स सानन्दसान्द्रसपानसुमत्तचित्तः ॥ ५५३ ॥ ब्रह्मज्ञानी पुरुष आत्मरूपमें स्थिर होकर विषयों में इन्द्रियोंको न कभी नियुक्त करते हैं न तो निवृत्त करते और न कभी क्रियाके फलके तरफ दृष्टि देते केवल ब्रह्मानन्दरसको पान करि मुन्दर मत्तसमान विहरते हैं५५३