________________
(१४२) विवेकचूडामणिः।
जैसा मैं देवदत्त नामक हूँ ऐसा अपना नाम ज्ञानमें किसीकी अपेक्षा नहीं होती तैसे ब्रह्मज्ञानीका भी मैं ब्रह्म हूँ इस ज्ञानमें किसीकी अपेक्षा नहीं होती ॥ ५३३ ॥
भानुनेव जगत्सर्व भासते यस्य तेजसा। अनात्मकमसत्तुच्छं किन्तु तस्यावभासकम् ॥ ५३४ ॥ जैसे सूर्यके उदय होनेसे जगत् भासता है तैसे जिस परब्रह्मके तेजसे आत्मासे भिन्न अनित्य झूठा जगत् भासता है तो उस ब्रह्मका अवभासक दूसरा कौन होगा ॥ ५३४ ॥ वेदशास्त्रपुराणानि भूतानि सकलान्यपि । येनार्थवन्ति तं किंतु विज्ञातारं प्रकाशयेत् ॥ ५३५ ॥
वेद शास्त्र पुराण और सब भूतमात्र ये सब वस्तु जिससे अर्थवान् होते हैं उस विज्ञाता ईश्वरको दूसरा कौन प्रकाशक होगा ॥ ५३५ ॥
एष स्वयंज्योतिरनन्तशक्तिरात्माऽप्रमेयः सकलानुभूतिः । यमेव विज्ञाय विमुक्तबन्धो जयत्ययं ब्रह्मविदुत्तमोत्तमः ॥५३६॥ यह आत्मा स्वयं प्रकाशरूप है इसकी शक्तिका किसीने अन्त नहीं पाया प्रभासे रहित सबका अनुभव करता है इस आत्माको जाननेसे ब्रह्मज्ञानी बन्धसे मुक्त होकर सबसे उत्तम कहा जाताहै ५३६
न खिद्यते नो विषयैः प्रमोदते न सजते नापि विरज्यते च । स्वस्मिन्सदा क्रीडति नन्दति स्वयं निरन्तरानन्दरसेन तृप्तः ॥ ५३७ ॥ ब्रह्मज्ञान होनेपर योगी लोग न खेदको प्राप्त होते न तो विषय प्राप्त होनेसे प्रसन्न होते न किसीमें आसक्त होते न किसासे विरक्त होते केवल आत्मस्वरूपको पाकर स्वयं सदा आनन्दरससे तृप्त होकर विहार करते हैं ॥ ५३७ ॥