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(१३८) विवेकचूडामणिः। है और सबसे अतिरिक्तभी मैं हूं अद्वितीय केवल अखण्डबोध निरन्तर आनन्दरूप ब्रह्म मैं ही हूं ॥ ५१७ ॥ स्वाराज्यसाम्राज्यविभूतिरेषा भवत्कृपाश्रीमहिमप्रसादात् । प्राप्ता मया श्रीगुरवे महात्मने नमो नमस्तेऽस्तु पुनर्नमोऽस्तु ॥ २१८॥ गुरुके प्रति शिष्यकी उक्ति है- हे श्रीगुरुमहाराज ! आपकी कृपासे व महिमाके प्रसादसे स्वर्गका अखण्ड राज्यकी विभूति मैं पाया इस लिये महात्मा श्रीगुरुमहाराजको वारम्वार मैं नमस्कार करता हूं ५१८
महास्वप्ने मायाकृतजनिजरामृत्युगहने भ्रमन्तं क्लिश्यन्तं बहुलतरतापैरनुदिनम् । अहंकारव्या
व्यथितमिममत्यन्तकृपया प्रबोध्य प्रस्वापात्परमवितवान्मामसि गुरो ।। ९१९॥ हे श्रीगुरुमहाराज ! मायाकृत जो जन्म जरा मृत्यु है. इन सबसे कठिन महास्वप्न सदृश इस संसारका जो अत्यन्त दुःख है उस दुःखसे क्लेश पाकर रातदिन भ्रमणमें प्राप्त और अहंकाररूप महाव्याघ्रसे अत्यन्त व्यथित मुझको आपने अति कृपाकर प्रबोध कराय इन सब भ्रान्तियोंसे रक्षित किया ॥ ५१९ ॥
नमस्तस्मै सदैकस्मै कस्मैचिन्महसे नमः । यदेतद्विश्वरूपेण राजते गुरुराज ते ॥ ५२० ॥ हे गुरुराज ! आपको सदा नमस्कार करता हूं जो आप अनिर्वचनीय स्वयं प्रकाश ब्रह्मरूप होकर इस विश्वरूपसे विराजमान हैं५२०॥
इति नतमवलोक्य शिष्यवयं समधिगतात्मसुखं प्रबुद्धतत्त्वम् । प्रमुदितहृदयः स देशिकेन्द्रः पुनरिदमाह वचः परं महात्मा ॥ ५२१ ॥