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भाषाटीकासमेतः। (१३५) न साक्षिणां साक्ष्यधर्माः संस्पृशन्ति विलक्षणम् । अविकारमुदासीनं गृहधर्मा प्रदीपवत् ॥ ५०६ ।।
जैसे गृहका मालिन्य आदि धर्म गृहके दीपकको नहीं स्पर्श करते तैसे देह आदि साक्ष्य वस्तुओंका जो सुख दुःख आदि धर्म हैं सो विकारसे शून्य उदासीन सबसे विलक्षण जो साक्षी ईश्वर हैं उनकों नहीं स्पर्श करता है ॥ ५०६ ॥
खेर्यथा कर्मणि साक्षिभावो वह्नेर्यथा दाहनियामकत्वम् । रज्जोयथारोपितवस्तुसङ्गस्तथैव कूटस्थचिदात्मनो मे ॥ ५०७॥ जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्योंकी चेष्टा कर्ममें प्रवृत्त होती है परन्तु सूर्य उन कर्भीका केवल साक्षी मात्र है जैसे अग्नि दाहका नियामक है दाहका प्रवर्तक नहीं है क्योंकि अग्निका स्वतः ऐसा स्वभावही है
और रज्जुमें जैसे आरोपित सर्पका संसर्ग होता है तैसाही साक्षिभाव देह आदि विषयों में कूटस्थ चैतन्य आत्मस्वरूप मेरेको है ॥ ५०७ ॥ कर्तापि वा कारयितापि नाहं भोक्तापि वा भोजयितापि नाहम् । द्रष्टापि वा दर्शयितापि नाहं सोहं स्वयं ज्योतिरनीहगात्मा ॥ ५०८॥ जीवन्मुक्त पुरुषकी उक्ति है कि मैं न किसी वस्तुका कर्ता हूं न तो किसीका कारयिता हूं न मैं भोक्ता हूं न तो भोजन करनेवाला हूं न द्रष्टा हूंन किसीको देखनेवाला हूं सबसे विलक्षण उपमासे रहित वही स्वयं प्रकाशरूप आत्मा मैं हूं ॥ ५०८ ॥ चलत्युपाधौ प्रतिबिम्बलौल्यमौपाधिकं मूढधियो नयन्ति । स्वबिम्बभूतं रविवद्विनिष्क्रिय कर्तास्मि भोक्तास्मि हतोस्मि हेति ॥ ५०९ ॥