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________________ (१३४) विवेकचूडामणिः। परब्रह्ममें जो नानाप्रकारकी उपाधि मालूम होती हैं वही उपाधि इस लोकमें आती है फिर अलगभी जाती है वही सब कर्मोको करती है और वही उपाधि अपने किये कर्मका फल भोगती है वही वृद्ध होकर मृत्युको प्राप्त होती है और मैं तो महापर्वतोंके सदृश निश्चल होकर सदा वर्तमान रहता हूं ऐसी जीवन्मुक्तोंकी उक्ति है ॥ ५०२॥ न मे प्रवृत्तिर्न च मे निवृत्तिः सदैकरूपस्य निरं- . शकस्य । एकात्मको यो निबिडो निरन्तरो व्योमेव पूर्णः स कथं नु चेष्टते ॥ ५०३ ॥ जीवन्मुक्तोंकी उक्ति है कि मैं अंशसे रहित सदा एकरूपसे वर्तमान हूँ मेरी किसी विषयोंमें न प्रवृत्ति है न तो किसीसे निवृत्ति है क्योंकि जो एक आत्मा होकर सदा सर्वत्र आकाश सदृश पूर्णरूपसे व्यापक होगा सो क्योंकर किसीतरहकी चेष्टा करेगा ॥ ५०३ ॥ पुण्यानि पापानि निरिन्द्रियस्य निश्चेतसो निर्विकृतेनिराकृतेः । कुतो ममाखण्डसुखानुभूतेब्रूते ह्यनन्वागतमित्यपि श्रुतिः॥५०४॥ इन्द्रिय और चित्त आकृति और विकृति इन सबसे शून्य अखण्ड मुखका अनुभव करनेवाले मुझको पुण्य और पाप कहाँसे होगा क्योंकि पुण्य पापसे सब इन्द्रियजन्य है मैं इन सबसे विलक्षण हूँ ऐसाही श्रुतिभी कहती है ॥ ५०४ ॥ .. छायया स्पृष्टमुष्णं वा शीतं वा सुष्टु दुष्ठ वा । न स्पृशत्येव यत्किञ्चित्पुरुषं यद्विलक्षणम् ५०५॥ जैसे मनुष्योंकी छाया उष्ण शीत अच्छा बेजाय सबप्रकारकी वस्तुओंको स्पर्श होनेका सुख अथवा दुःख मनुष्यको कुछभी नहीं मालूम होता तैसे शरीर आदि उपाधिका धर्म जो पुण्य पाप है सो ईश्वरमें कभी नहीं होता ॥ ५०५:।।
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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