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भाषाटीकासमेतः ।
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सब भ्रमसे और मिथ्या आरोपकी अनुस्फूर्तिसे मनुष्याने कल्पना कर ली है ॥ ४९८ ॥
आरोपितं नाश्रयदूषकं भवेत्कदापि मूढैरतिदोषदूषितैः । नाकरोत्यूषरभूमिभागं मरीचि - कावारिमहाप्रवाहः ॥ ४९९ ॥
जैसे भ्रमसे मृगतृष्णिका में जो जल प्रवाहका बोध होता है उस आरोपित जलप्रवाहसे ऊपर भूमि कभी सिक्त नहीं हो सकती तैसे अत्यन्त दोषसे दूषित मूढ जनोंसे ब्रह्ममें आरोपित जो संसार है सो संसाराश्रय जो ब्रह्महै उनको अपने दोषसे दूषित नहीं कर सकता ॥ ४९९ ॥ आकाशवल्लेपविदूरगोहमा दित्यवद्भास्यविलक्षगोहम् । आहार्य्यवन्नित्यविनिश्चलोहमम्भोधिवत्पारविवज्जितोहम् ॥ ५०० ॥
ब्रह्मज्ञानी उक्ति है कि जैसे आकाश सब वस्तुओंमें रहता है परन्तु किसीके गुण से लिप्त नहीं होता तैसे मैं विषयले पते दूरस्थ हूँ और सूर्य के सदृश प्रकाश्यवस्तुसे भिन्न हूँ अर्थात् जैसे सूर्य विषयों को प्रकाश करते हैं परन्तु विषयोंसे भिन्न है । पर्वतोंके सदृश सदा निश्चल हूँ समुद्र सदृश पारावारसे वर्जित हूँ अर्थात् मेरा अन्त किसीने नहीं पाया५०० न मे देहेन सम्बन्धो मेघेनेव विहायसः । अतः कुतो मे मद्धर्मा जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तयः ॥ ५०१ ॥ जैसे मेघके साथ आकाशका कुछ सम्बन्ध नहीं है तैसे इस देह से मुझको भी कोई सम्बन्ध नहीं है इसलिये देहका जो जाग्रत् स्वम सुषुप्ति आदि धर्म है सो क्यों हमारे में होसकता है ।। ५०१ ॥
उपाधिरायाति स एव गच्छति स एव कर्माणि करोति भुङ्क्ते । स एव जीर्यन् म्रियते सदाहं कुलाद्रिवनिश्चल एव संस्थितः ॥ ५०२ ॥