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________________ (१३२) विवेकचूडामणिः। उपमासे रहित आनादितत्त्व त्वं अहं इदं इस कल्पनासे शून्य नित्या . आनन्दैकरस सत्य अद्वितीय ब्रह्म मैं हूँ ॥ ४९४ ॥ नारायणोऽहं नरकान्तकोऽहं पुरान्तकोऽहं पुरुषोहमीशः॥ अखण्डबोधोहमशेषसाक्षी निरीश्वरोऽहं निरहं च निर्ममः ॥ ४९५ ॥ मैं नारायण हूँ अर्थात् समुद्रशायी हूं नरक नामका दैत्यका अंतक मैं हूं त्रिपुरासुरका हन्ता शिव मैं ही हूँ पुराणपुरुष ईश्वर मैं हूँ अखण्डबोध सर्वसाक्षी ममता अहंकारसे शून्य निरीश्वर ब्रह्म मैं ही हूँ॥४९५।। सर्वेषु भूतेष्वहमेव संस्थितो ज्ञानात्मनान्तर्बहिराश्रयः सन् । भोक्ता च भोग्यं स्वयमेव सर्व यद्यत्पृथग्दृष्टमिदं तया पुरा ॥ ४९६ ॥ सब प्राणियोंके हृदयमें ज्ञानरूपसे वर्तमान मैं हूं और आश्रयरूपसे वर्तमान बाहर भीतर मैं हूं भोक्ता भोग्य और जो जो वस्तु इदं शब्दकी प्रतीतिसे पूर्व देखा सो सब मैं स्वयं हूं ॥ ४९६ ॥ मय्यखण्डसुखाम्भोधी बहुधा विश्ववीचयः । उत्पद्यन्ते विलीयन्ते मायामारुतविभ्रमात्॥४९७॥ अखण्ड सुखका समुद्र जो मैं हूं तिसमें बहुतसी संसाररूप लहरी मायारूप मारुतके विभ्रमसे उत्पन्न होती हैं फिर उसमें लयको भी प्राप्त होती हैं ॥ ४९७ ॥ स्थूलादिभावा मयि कल्पिता भ्रमादारोपितानुस्फुरणेन लोकैः । काले यथा कल्पकवत्सराय नवदियो निष्कलनिर्विकल्पे ॥४९८ ॥ जैसे निर्विकल्पक व्यापक जो एक काल है उसमें कल्प वत्सर अयन ऋतु आदि नानाभाव कल्पित होते हैं तैसे कला और विकल्पसे शून्य परब्रह्म स्वरूप हमारेमें जो स्थूल सूक्ष्म आदि भावना है सो
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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