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________________ भाषाटीकासमेतः । ( १२७ ) भवानपीदं परतत्त्वमात्मनः स्वरूपमानन्दघनं विचार्य्यं । विधूय मोहं स्वमनः प्रकल्पितं मुक्तः कृतार्थो भवतु प्रबुद्धः ॥ ४७३ ॥ इतनी शिक्षा देकर श्रीशङ्कराचार्य्यस्वामी शिष्यसे बोले कि तुमभी परमात्माका परमतत्त्व आनन्दघनस्वरूपको विचार कर मनका प्रकल्पित महामोहको छोडकर कृतार्थ प्रबुद्ध मुक्त होजाओ || ४७३ ॥ समाधिना साधुविनिश्चलात्मना पश्यात्मतत्त्वं स्फुटबोधचक्षुषा । निःसंशयं सम्यगवेक्षितश्चेच्छुतः पदार्थों न पुनर्विकल्प्यते ॥ ४७४ ॥ समीचीनरीति से निश्चलात्मक समाधिसे और विकसित बोधरूप चक्षुसे आत्मतत्त्वको देखो यदि आत्मतत्त्वको संदेहरहित समीचीनरीति से स्थिर करलोगे तो जितने श्रुतपदार्थ हैं सो फिर विकल्पको ( अर्थात् संशयको ) न प्राप्त होंगे || ४७४ ॥ स्वस्याविद्याबन्धसंबन्धमोक्षात्सत्यज्ञानानन्दरूपात्मलब्धौ । शास्त्रं युक्तिर्देशिकोक्तिप्रमाणं चान्तः सिद्धा स्वानुभूतिः प्रमाणम् ॥ ४७५ ॥ अपना अज्ञानरूप बन्धका संवन्धसे मुक्त होनेपर सत्यज्ञान आनन्दुस्वरूप आत्मस्वरूपका लाभ होता है इस विषय में शास्त्र और युक्ति और श्रेष्ठोंका कहा प्रमाण है और अंतःकरणसे सिद्ध अपना अनुभभी प्रमाण है || ४७५ ॥ बन्ध मोक्षश्व तृप्तिश्च चिन्तारोग्यक्षुधादयः । स्वेनैव वेधा यज्ज्ञानं परेषामानुमानिकम् ||४७६ ॥ क्षुधा और बन्धसे मोक्षतृप्ति चिन्ता आरोग्यक्षुधा ये सब अपनेको मालूम होते हैं अर्थात् जिसको बन्धनादिक प्राप्तहैं उसी पुरुषको इन सबका यथार्थ ज्ञान होता है और दूसरेको इन सवोंका ज्ञान
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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