________________
विवेकचूडामणिः ।
अहेयमनुपादेयमनादेयमनाश्रयम् । एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ॥ ४६८ ॥
अत्याज्य और अवाच्य अग्राह्य आश्रयसे रहित एकही अद्वितीय ब्रह्म सत्य है और जितना नानाप्रकारका प्रपञ्च है सो सब मिथ्या है ४६८ निर्गुणं निष्फलं सूक्ष्मं निर्विकल्पं निरञ्जनम् । एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ॥ ४६९ ॥ निर्गुण कलासे हीन सूक्ष्म (अर्थात् इन्द्रियोंका अगोचर ) विकल्पसे रहित निर्मल एकही अद्वितीय ब्रह्म नित्य है और सब अनित्य है४६९ अनिरूप्यस्वरूपं यन्मनोवाचामगोचरम् । एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ॥ ४७० ॥
जिनका स्वरूपको निश्चय किसीने नहीं किया और जो मन वचन दोनोंका अगोचर है वही एक अद्वितीय ब्रह्म नित्य है और सब प्रपञ्च मिथ्या है ॥ ४७० ॥
(१२६)
सत्समृद्धं स्वतः सिद्धं शुद्धं बुद्धमनीदृशम् । एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ॥ ४७१ ॥
सत्यस्वरूप स्वतः सिद्ध स्वच्छ बोधस्वरूप उपमासे रहित एकही अद्वितीय ब्रह्म है दूसरा सब मिथ्या है ॥ ४७१ ॥
निरस्तरागा विनिरस्तभोगाः शान्ताः सुदान्ता यतयो महान्तः । विज्ञाय तत्त्वं परमेतदन्ते प्राप्ताः परां निर्वृतिमात्मयोगात् ॥ ४७२ ॥
जो महात्मालोग विषय रागकोत्याग किया और विषय भोगकी इच्छा त्यागकर इन्द्रियोंका निग्रहकर अपने वश करलिया और चित्तवृत्तिको निरोधकरके परमतत्त्वको जानलिया वह योगी आत्मसंयोग होने से परमसुखको प्राप्त होते हैं || ४७२ ॥