SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषाटीकासमेतः। (१२३) से निवृत्त होकर केवल परब्रह्म आत्माकी एकत्व बुद्धिसे सुस्थिर मुनिलोगोंके प्रारब्ध कर्मका फलका सम्बन्ध कथन करना युक्त नहीं है। अर्थात् प्रारब्ध कर्मका फल भोगना नहीं पडता ॥ ४५५ ।। नहि प्रबुद्धः प्रतिभासदेहे देहोपयोगिन्यपि च प्रपञ्चे। करोत्यहंतां ममतामिदंतां किं तु स्वयं तिष्ठति जागरेण ॥ ४५६॥ सम्यक ज्ञानी पुरुषोंको कर्म फल भोगना नहीं पडता इसका कारण यह है कि, ज्ञानीपुरुष प्रतिभास रूप इस देहमें अहंबुद्धि नहीं रखते और इस देहमें उपकारक जितना विषय प्रपञ्च है उसमें ममता इदंता अर्थात् यह मेरा है ऐसी बुद्धिको छोडके केवल आत्मस्वरूपमें जागरण करतेहैं ॥ ४५६ ॥ नतस्य मिथ्यार्थसमर्थनेच्छा न संग्रहस्तजगतो. ऽपि दृष्टः । तत्रानुवृत्तिर्यदि चेन्मृषार्थे न निद्रया मुक्त इतीष्यते ध्रुवम् ॥ ४५७ ॥ मिथ्या विषयोंकी, प्रार्थनाकी इच्छा ब्रह्मज्ञानी मनुष्य नहीं करते और मिथ्या जगत्का संग्रहभी नहीं देखागया । यदि उस मिथ्या पदार्थमें अनुवृत्ति होती अर्थात् यथार्थबुद्धि होती तो निद्रासे मुक्त मनुज्यभी स्वप्नावस्थाकं विषयोंको स्थिर मानते अर्थात जैसे स्वप्न दशाका देखा पदार्थ जागनेपर मिथ्या दीखपडता है तैसे जगत्भी ज्ञानीकोभी मिथ्या है ॥ ४५७॥ तद्वत्परे ब्रह्मणि वर्तमानः सदात्मना तिष्ठति नान्यदीक्षते । स्मृतिर्यथा स्वप्नविलोकितार्थे तथा विदः प्राशनमोचनादौ ॥ ४५८ ॥ परब्रह्ममें वर्तमान होकर आत्मस्वरूपसे जो सदा स्थिर है उनको ब्रह्मसे भिन्न दूसरा कुछ नहीं दीखता जैसे स्वप्नावस्थाका देखा पदा
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy