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(१२४) विवेकचूडामणिः। थोंका स्मरण जागनेपर होताहै तैसे ज्ञान दशामें ज्ञानीका जगतको मिथ्या स्मरणमात्र होताहै ॥ ४५८॥
कर्मणां निर्मितो देहः प्रारब्धस्तस्य कल्प्यताम्। नानादेरात्मनो युक्तं नैवात्मा कर्मनिर्मितः॥४५९॥ कर्महीसे देहका निर्माण होता है प्रारब्ध भी देहहीमें रहता है अनादि आत्माको कर्ममें निर्माणयुक्त नहीं है और आत्मा भी कर्मनिर्मित नहीं है ॥ ४५९ ॥
अजो नित्यः शाश्वत इति ब्रूते श्रुतिरमोधवाक् । - तदात्मना तिष्ठतोऽस्य कुतः प्रारब्धकल्पना ४६०॥
'अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुरुणो-' यह श्रुति आत्माको नित्य कहती है वही आत्मस्वरूपसे वर्तमान मनुष्यका प्रारब्धकी कल्पना क्यों होगी ॥ ४६०॥
प्रारब्धं सिद्धयति तदा यदा देहात्मना स्थितिः। देहात्मभावो नैवेष्टः प्रारब्धं त्यज्यतामतः॥४६॥ प्रारब्धकी सिद्धि तबतकही है जबतक देहमें आत्मबुद्धि स्थित है। ऐसी आत्मबुद्धि इस देहमें इष्ट नहीं है इस लिये प्रारब्धको त्याग करो ॥ ४६१ ॥
शरीरस्यापि प्रारब्धकल्पना भ्रान्तिव हि । अध्यस्तस्य कुतः सत्त्वमसत्त्वस्य कुतो जनिः४६२ यह शरीर प्रारब्धसे निर्मित है ऐसी कल्पना करना यहभी भ्रान्तिमात्रही है क्योंकि जो अध्यस्त है अर्थात् भ्रमसे उत्पन्न है वह सत्य कैसे होगा जो असत्य है उसका जन्मभी नहीं है ॥ ४६२ ॥
अजातस्य कुतो नाशः प्रारब्धमसतः कुतः। ज्ञानेनाज्ञानकार्य्यस्य समूलस्य लयो यदि॥४६३॥