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विवेकचूडामणिः। · लवत् । स्वप्नालोकितलोकवजगदिदं पश्यन्कचिल्लुब्धधीरास्ते कश्चिदनन्तपुण्यफलभुग्धन्यः स मान्यो भुवि ॥ ४२६॥ ब्रह्मस्वरूपको प्राप्त होनेसे और सदा निश्चल होनेसे बाह्यविषयोंकी बुद्धिको त्याग करनेवाला और दूसरेका दिया भोग्यवस्तुओंको भोग करनेमें निंद्रित पुरुषके सदृश चाहे बालकसदृश अर्थात् विना माँगे किसीका दिया भोग्यवस्तुओंको जैसा बालक उस वस्तुका गुण न समझकर ग्रहण करलेताहै तैसा ग्रहण करनेवाला और स्वप्नका दीखा हुआ मिथ्या संसारके समान इस दृश्य जगत्कोभी मिथ्या समझता हुआ जो कोई ब्रह्मज्ञानी मनुष्य स्थिर रहता है वह अनन्त पुण्यका फलभागी है और पृथ्वीमें धन्य है और मान्य है ।। ४२६ ॥
स्थितप्रज्ञो यतिरयं यः सदानन्दमश्नुते । ब्रह्मण्येव विलीनात्मा निर्विकारो विनिष्क्रियः४२७
जो यति पुरुष परब्रह्ममें आत्माको लय करके विकार और क्रियासे रहित होकर सदा आनन्दको प्राप्त होता है वही पुरुष स्थित प्रज्ञ कहा जाता है ॥ ४२७ ॥
ब्रह्मात्मनोः शोधितयोरेकभावावगाहिनी । निर्विकल्पा च चिन्मात्रा वृत्तिः प्रक्षेति कथ्यते ॥ ४२८॥ 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्योंसे शोभित जीवात्मा और परब्रह्ममें विकल्प बुद्धिसे रहित एकत्वभावको अवगाहन करनेवाली जो चैतन्य मात्रा वृत्ति इसीका नाम प्रज्ञा कहते हैं ॥ ४२८॥
मुस्थितासौ भवेद्यस्य स्थितप्रज्ञः स उच्यते । यस्य स्थिता भवेत्प्रज्ञा यस्यानन्दो निरन्तरः। प्रपञ्चो विस्मृतप्रायः स जीवन्मुक्त इष्यते ॥४२९॥