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________________ (१०८) विवेकचूडामणिः। निगमगदितकीति नित्यमानन्दमूर्ति स्वयमिति परिचीय ब्रह्मरूपेण तिष्ठ ॥ ३९६ ॥ श्रीशंकराचार्य स्वामी शिष्यसे बोले कि हे शिष्य ! मलमयकोश जो यह स्थूल शरीर है इस शरीरमें अहंबुद्धि होनेसे जो आशा लगी है उसे प्रथम त्याग करो पश्चात् वायुसदृश जो सूक्ष्म लिंगशरीर है उसकी आशाकोभी त्याग कर नित्य आनन्दमूर्ति जो परब्रह्म है जिनकी कीर्तिको वेदगान करता है वही ब्रह्मरूप होकर स्थिर रहो ॥ ३९६ ॥ शवाकारं यावद्भजति मनुजस्तावदशुचिः परेभ्यः स्यात्क्लेशो जननमरणव्याधिनिलयः । यदात्मान शुद्ध कलयति शिवाकारमचल तदा तेभ्यो मुक्तो भवति हि तदाह श्रुतिरपि ॥३९७ ।। मृतक समान इस देहको जबतक: मनुष्य सेवन करताहै तबतक अपवित्र रहताहै और जन्म मरण व्याधि नाश आदि परम क्लेशको. पाताहै । जो मनुष्य अपनेको शुद्ध चैतन्य अचल शिवस्वरूप दीखता है तब जनन मरण आदि ल्केशसे मुक्त होताहै ऐसा ही श्रुतिभी कहती हैं ॥ ३९७ ॥ स्वात्मन्यारोपिताशेषाभासवस्तुनिरासतः। स्वयमेव परं ब्रह्म पूर्णमद्वयमक्रियम् ॥ ३९८ ॥ अपने आत्मामें आरोपित जो मिथ्याज्ञान कल्पित सम्पूर्ण वस्तु हैं इन आरोपित वस्तुओंका त्याग करनेसे अपनेही अद्वितीय परिपूर्ण क्रिया रहित परब्रह्म शेष रहते हैं ॥३९८ ॥ समाहितायां सति चित्तवृत्तौ परात्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे । न दृश्यते कश्चिदयं विकल्पः प्रजल्पमात्रः परिशिष्यते ततः ॥ ३९९ ॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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