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________________ (१०६) विवेकचूडामणिः। स्तात्स्वयमेव पश्चात् । स्वयं ावाच्या स्वयमप्युदीच्यां तथोपरिष्टात्स्वयमप्यधस्तात् ॥३९०॥ अन्तःकरणमें स्वयं आत्मा है और बाह्यभी आत्मा आगे आत्मा और पश्चातूभी आत्मा दाहिने आत्मा बायें आत्मा ऊपर आत्मा नीचेभी आत्मा इसी रीतिसे ब्रह्मज्ञानीको सर्वत्र सदा काल आत्मा ही दीखता है आत्मासे भिन्न दूसरी कुछ वस्तु हुई नहीं है ।। ३९० ॥ तरंगफेनभ्रमबुद्धदादिवत्सर्व स्वरूपेण जलं यथा तथा । चिदेव देहायहमं तमेतत्सर्व चिदेवैकरसं विशुद्धम् ॥ ३९ ॥ जैसे जलमें तरङ्ग, फेन, जलका इकट्टा घूमना और जलका बुबुद ( अर्थात् बुल्ला ) ये सब अनेक रूपसे दिखाई देते हैं परन्तु जलसे भिन्न नहीं हैं जलरूपही हैं । तैसे देह आदि अहंकार पर्यंत जितनी वस्तु दीखती हैं सो सब अखण्ड विशुद्ध चैतन्यस्वरूपही हैं चैतन्यसे. भिन्न कुछभी पदार्थ नहीं है ॥ ३९१ ॥ सदेवेदं सर्व जगदवगतं वाङ्मनसयोः सतो. ऽन्यत्रास्त्येव प्रकृतिपरसीनि स्थितवतः । पृथकिं मृत्स्नायाः कलशघटकुम्भाधवगतं वदत्येष भ्रान्तस्त्वमहमिति मायामदिरया ॥ ३९२ ॥ सम्पूर्ण यह जगत् सत् ब्रह्म स्वरूपही है ऐसाही वचन मनसे . निश्चय करो सत्से अन्य दूसरा कुछ अलग घट कलश कुम्भको जानता है वास्तवमें घट कलश कुम्भ ये सब मृत्स्वरूपही हैं तैसे मायारूप मदिरासे जो पुरुष भ्रमको प्राप्त है उसी पुरुषकी यह तुम हौ यह मैं हूँ ऐसी भेदबुद्धि होती है वास्तवमें आत्मासे भिन्न कुछभी नहीं है सब आत्मस्वरूपही है ॥ ३९२ ॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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