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भाषाटीकासमेतः ।
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जैसे घट और कलश कुसूल अर्थात् बडा कोई मिट्टीका पात्र आदि सैंकडों उपाधिके भेद होनेसे आकाशभी भिन्न भिन्न दीखता है इन सब उपाधियोंके नाश होनेसे जैसा एकही महाआकाश रहजाता है तैसे अहंकार आदि नानातरहकी उपाधि होनेसे आत्माभी अनेक मालूम होते हैं परंतु उपाधिके नाश होनेपर एकही शुद्ध परब्रह्म रहते
॥ ३८६ ॥
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्ता मृषामात्रा उपाधयः । ततः पूर्ण स्वमात्मानं पश्येदेकात्मना स्थितम् ३८७ जीव ब्रह्मआदि स्तम्बपर्यन्त जितनी उपाधि सो सब मिथ्यामात्र हैं इसलिये एकरूपसे सदा स्थित परिपूर्णरूप आत्मा अपनेको देखना ॥ ३८७ ॥
यत्र भ्रान्त्या कल्पितं तद्विदेके तत्तन्मात्रं नैव तस्माद्रिभिन्नम् । भ्रान्तेर्नाशे भाति दृष्टाहितत्वं रज्जुस्तद्वद्विश्वमात्मस्वरूपम् ॥ ३८८ ॥
जैसे रज्जु में सर्पका भ्रम होता है वह सर्प रज्जुस्वरूपही है क्योंकि, दीपद्वारा भ्रम नष्ट होनेसे यथार्थ रज्जुस्वरूपही दीखती है तैसे जिस आत्मामें भ्रान्तिसे संसारकी कल्पना होती है वह संसारभी आत्मस्वरूपहीहै क्योंकि विवेक करनेसे भ्रम नष्ट होनेपर विश्वभी आत्मस्वरूयही दीखता है || ३८८ ॥
स्वयं ब्रह्मा स्वयं विष्णुः स्वयमिन्द्रः स्वयं शिवः। स्वयं विश्वमिदं सर्वं स्वस्मादन्यन्न किञ्चन ॥ ३८९ ॥ ब्रह्मज्ञान होने पर ब्रह्मा विष्णु इन्द्र शिव और सब विश्व अपनाही रूप दीखता है आत्मासे भिन्न दूसरा कुछ नहीं है ॥ ३८९ ॥
अन्तः स्वयं चापि बहिः स्वयं च स्वयं पुर -