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(१०४) विवेकचूडामणिः। निश्चय करताहुआ मुमुक्षुपुरुषका आत्मस्वरूपसे प्रकाशरूप परब्रह्मको ध्यान करना योग्य है ॥ ३८२ ॥
अत्रात्मत्वं दृढीकुर्वन्नहमादिषु संत्यजन् । * उदासीनतया तेषु तिष्ठेत्स्फुटघटादिवत् ॥३८३॥
पूर्वोक्त रीतिसे इस आत्मामें आत्मत्वको दृढ करताहुआ और अहंकार आदि अनित्य वस्तुओंमें आत्मबुद्धिको त्याग करताहुआ योगी पुरुषको जैसे फूटाघटमें उपेक्षाबुद्धि होतीहै तैसे देह आदि अनित्य वस्तुओंसे उदासीन होकर सदा स्थिर रहना ॥ ३८३ ॥ विशद्धमन्तःकरणं स्वरूपे निवेश्य साक्षिण्यवबोधमात्रे । शनैःशनैनिश्चलतामुपानयन्पूर्ण स्वमेवानुविलोकयेत्ततः ॥ ३८४॥ सर्वसाक्षी अवबोधमात्र जो आत्मस्वरूप है उसमें विशुद्ध अन्तःकरणको निवेशकरि क्रमसे निश्चलताको प्राप्त होनेके बाद मोक्षार्थी पुरुष पूर्ण ब्रह्म अपनेको समझे ॥ ३८४ ॥
देहेन्द्रियप्राणमनोहमादिभिः स्वाज्ञानक्तैरखिलैरुपाधिभिः । विमुक्तमात्मानमखण्डरूपं पूर्ण महाकाशमिवावलोकयेत् ॥ ३८५ ॥ जैसे घटरूप उपाधि रहनेसे घटके भीतरभी एक आकाश प्रतीत होताहै घट फूटने पर एकही महाआकाश रहजाताहे-तैसे अपना अज्ञानसे कल्पित जो देह इन्द्रिय, प्राण मन अहंकार आदि सम्पूर्ण उपाधि हैं इन उपाधियों से मुक्त अखण्डरूप परिपूर्ण आत्माको भी जानना ॥ ३८५ ॥
घटकलशकुमूलसूचिमुख्यैर्गगनमुपाधिशतैर्विमुतमेकम् । भवति न विविधं तथैव शुद्धं परमहमादिविमुक्तमेकमेव ॥ ३८६ ॥