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इस तरह यहां तिरछे लोक में रहने वाले व्यन्तरों का वर्णन किया है तथा रत्नप्रभा पृथ्वी के वर्णन के प्रसंग को लेकर किया गया है। (२७३)
इति व्यन्तराणां सुराणां पुराणाम् पुराणोपदिष्ट व्यवस्थान्यरूपि । तृतीयाच्चतुर्थादुपांगाच्च शेषम् विशेषं विदन्तु प्रबुद्धाः समेधाः || २७४ || इस प्रकार से व्यन्तर देवों के नगरों का शास्त्र में वर्णन किया है, उसी तरह से. मैंने यहां वर्णन किया है। विशेष वृत्तान्त के जिज्ञासु बुद्धिमान पंडितजन को इसके लिए तीसरे और चौथे उपांग सूत्र को देखना चाहिए। (२७४)
विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष द्राज श्री तनयोऽनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे
निर्गलितार्थ सार्थ सुभगः पूर्ण सुखं द्वादश: ॥ २७५ ॥ इति द्वादश सर्गः
सारे विश्व को आश्चर्य में लीन करने वाली जिसकी कीर्ति है, ऐसे श्री कीर्ति विजय उपाध्याय भगवन्त के अन्तेवासी तथा माता राजश्री और पिता तेजपाल के सुपुत्र विनय विजय जी रचित जगत के तत्वों को दीपक के समान प्रकाश में लाने वाले इस काव्य के अन्दर से निकले हुए अर्थ समूह से सुभग यह बारहवां सर्ग सुखपूर्वक समाप्त हुआ । (२७५)
॥ बारहवां सर्ग समाप्त ॥