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(४५) तेऽपि पूर्वाभवाभ्यासात् पापा मिथ्यात्व मोहिताः। मद्य मांसादि वीक्ष्यैव तुष्यन्ति न तु भुंजते ॥२६७॥
और जो वीर, चंडिका, कालिका आदि हिंसक देव तृप्त होते हो तो वे मांस-मद्य आदि की आहुति से तुष्टमान होते हैं । वे पापी मिथ्यात्व मोहित देव पूर्व जन्म की आदत होने से इन वस्तुओं को देख कर ही सन्तुष्ट होते हैं, इनका आहार नहीं करते हैं । (२६६-२६७)
संमूर्छिमा गर्भजाश्च तिर्यंचो गर्भजा नराः ।
उत्पद्यन्ते षड् भिरपि युताः संहननैरिह ॥२६८॥ ___संमूर्छिम तथा गर्भज तिर्यंच तथा गर्भज मनुष्य मृत्यु के बाद यहां व्यन्तर जाति में उत्पन्न होते हैं तथा इनकी संघयण छः होती हैं । (२६८)
च्युत्वोत्पाद्यन्त एते नृतिरश्चोर्गर्भ जन्मनोः । पर्याप्त बादरक्ष्माम्भः प्रत्येक भूरूहेषु च ॥२६६॥
ये व्यन्तर यहां से च्यवन कर गर्भज तिर्यंच तथा गर्भज मनुष्य में तथा पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अपकाय और प्रत्येक वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं । (२६६)
एकेन समये नैकादयोऽसंख्यावसानकाः । ___. उत्पद्यन्ते च्यवन्तेऽमी उत्कृष्टमेषु चान्तरम् ॥२७०॥ .
वे एक ही समय में एक से लेकर असंख्यात तक उत्कृष्ट से उत्पन्न होते हैं और च्यवन होते हैं । (२७०) - ज्ञेयं मुहूर्तानि चतुविंशतिस्तज्जद्यन्यतः ।
एक सामयिकं नूनं च्यवनोत्पत्ति गोचरम् ॥२७१॥ . . और इनमें च्यवन तथा उत्पत्ति के बीच का उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त का, जघन्य अन्तर एक समय का है । (२७१)
पश्यन्त्यवधिना पंच विशति योजनान्यमी । जघन्य जीविनोऽन्ये च संख्येययोजनावधि ॥२७२॥ इनमें से जघन्य आयुष्य वाला अवधि ज्ञान से पच्चीस योजन तक होता है और अन्य संख्यात योजन तक हो सकता है । (२७२) .... तिर्यग्लोकवासिनोऽपि व्यन्तरा यदिहोदिताः ।
तद्वै रत्नप्रभा पृथ्वी वक्तव्यता प्रसंगतः ॥२७३॥