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स्थितिरुत्कर्षतोऽमीषां पल्यमर्धं च योषिताम् । सहस्राणि दशाब्दानां उभयेषां जघन्यतः ॥२६०॥
व्यन्तर देवों की उत्कृष्ट आयु स्थिति एक पल्योपम की होती है और उनकी देवियों की अर्ध पल्योपम होती है और जघन्य आयुष्य इन दोनों की दस हजार वर्ष की होती है । (२६०)
स्वाभाविकं सप्तहस्तमानं उत्कर्षतो वपुः ।
अंगुलासंख्यांशमानं जघन्यं प्रथमक्षणे ॥२६१॥
इनका स्वाभाविक शरीर मान उत्कर्षतः सात हाथ का है और जघन्यतः प्रथम क्षण में एक अंगुल के असंख्यवें अंश जितना होता है । (२६१.).
लक्षयोजन मानं चोत्कृष्टमुत्तरवैक्रियम् । ... प्रक्र मेऽङ्गलसंख्येय भागमानं जघन्यतः ॥२६२॥
इनका उत्तर वैक्रिय शरीर उत्कर्षतः लाख योजन का हो सकता है जबकि जघन्यतः प्रारम्भ में अंगुल के संख्यात भाग जितना होता है । (२६२)
एषां लेश्याश्च तस्रः स्युः पद्मांशुक्लां विना पराः। उच्छ्वसन्ति सप्तभिस्ते स्तोकैर्जघन्य जीविनः ॥२३॥
इनको पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्यासिवाय चार लेश्या होती हैं। इनमें जघन्य आयुष्य वाला होता है । ये सात स्तोक में श्वास लेते हैं और एकान्तर में क्षुधातुर होते हैं । (२६३) .
बुभुक्षवश्चैक दिनान्तरेऽथोत्कृष्ट जीविनः ।
समुच्छ्वसन्त्याहरन्ति मुहूर्ताहः पृथक्त्वकैः ॥२६४॥ तथा जिनका उत्कृष्ट आयुष्य होता है वे चार मुहूर्त में श्वासोच्छ्वास लेते हैं और चार दिन में क्षुधातुर होते हैं । (२६४)
आहारे चित्त संकल्पोपस्थिताः सार पुदगलाः । सर्वांगेषु परिणमन्त्येषां कावलिकस्तु न ॥२६५॥
आहार की इच्छा होते ही संकल्प मात्र से ही सार-सार पुद्गल इनके सर्व अंगों में व्याप्त होता है । इनको कवल आहार नहीं होता है । (२६५) .
ये तु हिंस्रा सुरा वीर चंडिका कालिकादयः । मद्य मांसाद्याहुतिभिस्तुष्यन्ति तर्पिता इव ॥२६६॥